तेरी हर बात को बेवजह दिल से लगा के बैठा था ,
पगला ही था शायद जो अब भी मुरझा के बैठा था ll
तलाश तुमको तो थी किसी नीले आसमाँ की ,
मैं ठहरा अभागा अपने पर जला के बैठा था ll
मय तो मिला मयखाने में पर मैं मैं से छूट गया ,
तू फिर से बनेगा साकी मैं आस लगा के बैठा था ll
खरीददार हजारो निकले मेरे बिखरे अरमानो के ,
नदी सूख गयी थी और मैं कश्ती बना के बैठा था ll
बिकती रही बहू बेटियाँ हर रोज़ किसी सामान की तरह ,
और अंधों के इस शहर में मैं आईने बिछा के बैठा था ll
हिम्मत अब भी बची थी शायद कुछ मुझमें ऐ-परिमल ,
जब भी अँधेरा हुआ था शहर मैं जिस्म जला के बैठा था
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