Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बीते पल

 

तेरी हर बात को बेवजह दिल से लगा के बैठा था ,

पगला ही था शायद जो अब भी मुरझा के बैठा था ll


तलाश तुमको तो थी किसी नीले आसमाँ की ,

मैं ठहरा अभागा अपने पर जला के बैठा था ll


मय तो मिला मयखाने में पर मैं मैं से छूट गया ,

तू फिर से बनेगा साकी मैं आस लगा के बैठा था ll


खरीददार हजारो निकले मेरे बिखरे अरमानो के ,

नदी सूख गयी थी और मैं कश्ती बना के बैठा था ll


बिकती रही बहू बेटियाँ हर रोज़ किसी सामान की तरह ,

और अंधों के इस शहर में मैं आईने बिछा के बैठा था ll


हिम्मत अब भी बची थी शायद कुछ मुझमें ऐ-परिमल ,

जब भी अँधेरा हुआ था शहर मैं जिस्म जला के बैठा था

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