Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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गोय्ठे में भुनते मकई के चन्द दाने

 

गोय्ठे में भुनते मकई के चन्द दाने ,

सुनहरे ख़्वाबों की तरह पक रहे थे ,

धीरे धीरे मानो पूरी रात तक जगाके रखना है l

पास बैठा मोती ठण्ड से कुन्ह्ड़ता जा रहा था ,

कमबख्त इस रात को भी आज ही सर्द होना था l


धुन्ध सी छा रक्खी थी चारो तरफ ,

मानो कल सूरज के देर से आने का सन्देशा हो ,

गोय्ठे की आग से जंग अब तक जारी थी l

एक ने ना जलने की कसम रक्खी थी तो मानो दूसरे ने जलाने की ,

सफ़ेद पजामे का निचला कोना अब तक धूल से सना था ,

पर फिर भी आज क्रिकेट के खेल में अविजित रहने का एहसास इसपे भारी था l


इक्का दुक्का कुछ आवाजें शान्ति का चीड हरण कर रही थी ,

"अरे हो मरदे कन्ने गेला" शायद इसी टाइप की l

पास पड़ा रेडियो भूले बिसरे गीतों को याद दिलाने के अथक प्रयास में था ,

माचिस की तीली को कानो में डाले मैं भुट्टे को देख रहा था ,

फट फट की आवाज़ से पता चल रहा था ,

अब जल्द ही इसे मेरे मुँह के अन्दर होना है l


समझदार मोती की आवाज़ से मैंने भुट्टे को जलने से पहले निकाल लिया,

जब तक मैंने उसे बिलकूल आधा आधा नहीं किया वो मुझे घूरता ही जा रहा था ,

हर कोई अब समझदार हो चला है l

सर्द हवाओं ने अब पेशानियों में घुसना शुरू कर दिया था ,

मोती के लिए बोरा और मेरे लिए रजाई इंतज़ार कर रहे थे ,

उसे सुलाकर मैं भी बढ़ चला अपने कमरे की तरफ अलसाया सा ,

सर्द रात के अब कफ़न और मेरे रजाई ओढने का वक़्त हो चला था l

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