१ )
आज पूनम की रात आई है यूँ घूंघट में चाँद ना छुपाओ ,
इक दीदार को तेरे कब से बैठे हैं जरा ज़ुल्फ़ तो लहराओ ll
जादूगर हूँ तो नहीं पर तुम कहो तो इस रात को रोक लूँ ,
लेटा रहूँ सीने पे सर रखके तेरी साँसों को खुद से जोड़ लूँ ll
२ )
यूँ अक्सर रातों को मेरे ख़्वाबों में आया ना करो ,
साँसें मेरी बढती है उफ्फ़ अब यूँ सताया ना करो ll
बेचारा चाँद भी शरमा जाता होगा तुम्हे देखके ,
गुजारिश है यूँ लबों को दाँतो से दबाया ना करो ll
३ )
यक़ीनन मेरे हर अनसुलझे सवालों का जवाब हो तुम ,
पढना चाहता हूँ जिसे फुर्सत से वो हसीं किताब हो त्तुम ll
छुप गयी जो कभी बादलों में तो क्या हसीं नज़ारा होगा ,
ओह महकती धूप में लरजते फूलों पे आया शबाब हो तुम ll
४ )
फागुन की उजली सुबह एक हँसता गुलाब देखा था ,
जरीदार दुपट्टे में लिपटा बेहद हसीन ख्वाब देखा था ll
वो खुलते बंद होते लबों की याद अब तक ज़ेहन में है ,
चाँद ही ज़मीं पे उतरा था तभी तो ऐसा शादाब देखा था ll
५ )
आजकल पुराने लिफाफों में पड़े तेरे कुछ जज्बात सम्भाल रहा था ,
रोज की तरह तेरी डायरी के पीछे बनी अपनी तस्वीर सहेज रहा था ll
तेरे सुर्ख गुलाबी होठों से गिरे हर्फ़ अब तक कमरे के कोने में पड़े थे ,
कैसे लगाऊँ आग पानी में यादों को बस सीने में ही दफ़न कर रहा था ll
६ )
चलो आज फिर से टूटे हिम्मत को जोड़ने की कोशिश करते हैं ,
है लाख अँधेरा बाहर पर इक दिया जलाने की कोशिश करते हैं ll
राह मुश्किल है कठिन है डगर पर मंजिल तो फिर भी है पाना ,
गंगा ना सही पत्थरों से पानी ही निकालने की कोशिश करते हैं ll
७ )
इक आवारा बादल ने कल तेरे घर का पता पूछा था ऐ परिमल ,
अफ़सोस प्यासा था मेरा शहर मजबूरन अपना ही पता बता दिया ll
८ )
ऐ समंदर तू मेरे घरौंदों को यूँ हिकारत से ना देख ,
हमने तो मिट्टी के घर बनाये हैं बारिशों के शहर में ll
९ )
पत्थरों के इस शहर का रिवाज़ हटके है ,
गिला सबसे है सबको पर अंदाज़ हटके है ll
दफ़न है दीवारों में कई मोहब्बत के किस्से ,
मज़हब एक ही है बस ज़रा अलफ़ाज़ हटके है ll
१० )
दोस्ती करने का उनका बड़ा ही ढंग निराला है ,
चला के पीठ पे खंजर मेरे जख्मों को धोते हैं ll
११ )
वतन पे मिट भी जो जाऊं तो कोई ग़म नहीं परिमल ,
या खुदा मेरे ज़ख़्मों को भी तू बस तिरंगा रंग दे देना ll
१२ )
तेरी बलखाती जुल्फ़ो के पीछे कई समंदर छोड़ आया
अफ़सोस तेरी इक ना के पीछे कई हाँ छोड़ आया ll
१३ )
तेरी हर बात को समझता था मैं पत्थर की लकीर ,
मेरे खुदा तूने तो मेरी ही लकीरों पे पत्थर चला दिए ll
१४ )
मेरे आशियाने का इक कोना अभी तो जलना बाकी था ,
पता नही उस तक कैसे मेरी बर्बादियों के तार पहुँच गये ll
१५ )
तेरे कल बर्फ पर लिक्खे जज़्बात पढ़ रहा था ,
जिसपे लिखा था तेरा नाम वो किताब पढ़ रहा था,
संगमरमरी बदन तेरा मेरी ज़िंदगी को कर बैठा रौशन,
वो अख़बार जिसे था कल छुआ बार बार पढ़ रहा था ll
Comments
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY