Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

कुछ चीँटेँ हमने भी मारें

 

(यह नवगीत श्रमजीवी वर्ग के जीवन को प्रतीक के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश है)

 

 

 

जब उनपर बौछारेँ पड़तीँ।
कोमल गाल तमाचेँ जड़तीँ।
अपने प्राण बचाने को तो,
तड़प रहे थे वो बेचारे।
कुछ चीँटेँ हमने भी मारें॥

 

श्रमजीवी काले तन वाले।
कद छोटा सा भोले-भाले।
बचा-खुचा पर जूठन खाकर,
जीवन जीते राम सहारे।
कुछ चीँटेँ हमने भी मारें॥

 

पंक्तिबद्ध होकर जब बढ़ते।
मंजु एकता मूरत गढ़ते।
हमने उनको क्योंकर मारा,
यक्ष प्रश्न अब हृदय हमारे।
कुछ चीँटेँ हमने भी मारें॥

 

 

 

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ