तनहाई (ग़ज़ल) - शायर- इलाही जमादार
गुफ़्तगू - प्रथम संस्करण १५ जून २००७
देखा पेड़ के साये में कोई धूप अकेली बैठी थी
बस शोर मचा था किरणों का बाकी सब ख़ामोशी थी
दूर दूर तक फ़ैला सागर पानी ही बस पानी था
कोई किनारा कश्ती कोई नज़र न मुझको आई थी
चाँद सितारों का उतरा था अक्स अक्स इस धरती पर
मासूम इस सहरा में शायद याद किसी की आई थी
भटक रहा था इक दीवाना इस सहरा की जन्नत में
लमहा लमहा फूल बना था साँस साँस पुरवाई थी
सूरज के साये में कोई छाँव अकेली बैठी थी
गौर से मैंने देखा उसको वो मेरी तनहाई थी
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वरील गझलेचा भावानुवाद खालीलप्रमाणे.............
गझल
वृत्त: मात्रा वृत्त
मात्रा: ८+८+८+६=३०मात्रा
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तरूतळी त्या काल पाहिले ऊन्ह एकटे बसलेले!
किरणांची तेवढीच गजबज, निवांत जग पण, उरलेले!!
दूरदूरवर अथांग सागर, फक्त राज्य त्या पाण्याचे......
नसे नाव, ना कुठे किनारा, सारे सारे दडलेले!
मृगजळातही विलसत होत्या चंद्रचांदण्यांच्या प्रतिमा!
मरुभूमीतच जणू कुणाचे स्मरण असावे झरलेले!!
मरुभूमीच्या दिव्यप्रदेशी एक दिवाणा वणवणतो.......
क्षणाक्षणांचे फूल उमलले, श्वास श्वास घमघमलेले!
सूर्याच्या सावलीत बसली छाया कोणी एकाकी!
जरा निरखले.....ते तर माझे...... एकाकीपण थकलेले!!
-------प्रा.सतीश देवपूरकर
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