परिवार ,समाज और राष्ट्र की इंकाई हैं यदि इस संस्था मे ही आत्मीयता और सहयोग नही बढ सका तो समाज में सामुहिकता और स्वराज की कल्पना दिवास्वप्न बनकर रह जायेगी।इस समय हमारे समाज में प्रगतिशीलता की नई हवा, लहर सी बह आई है।
प्रगतिशीलता के नाम पर आधुनिकता का जो स्वरूप देखने मंे आ रहा हैं उससे लगता हें जो रीति नीति हम अपनाते जा रहे हैं वह न तो प्रगतिकारक हैं और न ही आदर्श वादी। समाज का स्वरूप व वातावरण बेशक बदला है। प्राचीन परंम्पराओं को उसी रूप में जिन्दा तो नही रखा जा सकता परंतु तथाकथित प्रगतिशीलता के भवॅर जाल में पड़कर उसके मूल तथ्यों को एकदम उपेक्षित कर देना भी अनुचित हैं विकास और उन्नति में अवरोध उपस्थ्ािित करने वाली इस निति का विश्लेषण करने पर यही मानना पडेगा कि अधानंुकरण की प्रवृति आज तेजी से बढ रही है आज हम ं एक ऐसी सभ्यता और संस्कृति की चकाचैध भरी चमक दमक को देखकर उससे आकर्षित हो लाभदायक तत्वों की उपेक्षा कर रहें है। जिसमें स्वयं संतोष, शान्ति और घैर्य का नितांत अभाव हैं
इस अध्ंाानुकरण की प्रवृति के कारण भारत से संयुक्त परिवार प्रथा प्रणाली का विधटन होता जा रहा है। दाम्पम्य जीवन में प्रवेश करते ही पति पत्नि अपने परिवार को छोड देते हैं और अलग नये घर बसाने की योजना बनाने और उसे मूर्त रूप देने में जुट जाते हैं। नौकरी पेशा लोग रोजगार और उर्पाजन के लिये बाहर जाकर अपनी पत्नि बच्चों के साथ रहेंैं यह सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार ठीक हैं परंतु आज अधिकांश युवक एक शहर या गाॅव में ही रहते हुये भी अलग रहते हैं।
इसका सबसे बडा कारण हैंे कि परिवार के वृद्व सदस्यों आरै माता पिता के प्रति उपेक्षा का भाव दो दशक पुर्व तक हमारे देश में सयुक्त परिवार प्रथा थी। परिवार में बच्चे बडों बूठों की छत्र छाया में पलते थे ओर अन्य दुसरे चाचा ताउ के बच्चों के साथ रहकर एकता, ममता, स्नेह, त्याग का पाठ सीखते थे। तब न तो पति पत्नि अलग स्वतंत्र दायित्वों के बोझ तले इतना दबे रहते थे और न ही वृद्व स्वजन अभिशाप समझे जाते थे। आज स्वार्थी आत्म केन्द्रित मानसिकता, प्रगतिशील और आधुनिक सभ्यता की और आकृष्ट होने से ही परिवार का विधटन शुरू हुआ हैं और फल्स्वरूप एकाकी परिवार की अगणित समस्याएॅ सामने आ रही हैं।
यह सभी जानते है कि एकाकी परिवार में जीवन और भविष्य निचिष्त नहीं है। तथा सुख सुविधाये भी उतनी नही प्राप्त हो सकती फिर भी क्यों युवक युवतियां जितनी जल्दी हो सके अपने माता पिता भाई बहन सास ससुर देवर जेठों से अलग रहने की इच्छा रखते हैं? उत्तर स्पष्ट हैं कि सारी सुख सुविधा वह अकेले ही भोगना चाहते हैं तथा वृद्वों के प्रति अश्रद्वा का भाव होने के कारण ही इस इच्छा का जन्म होता हैं परंतु परिवार से अलग होते ही परेशानिया व कठिनाईया भोगनी पडती हें उसके फल स्वरूप जीवन भार भी तो लगने लगता हैं और परिवारिक जीवन में कटुता के अंकुर फुटने लगते हेंै। एकाकी परिवार में महिलाआंे की व्यस्तता बढ जाती हैं सम्मिलित सब स्वजनों के साथ रहने के पर धर की आंतरिक व्यवस्था का दायित्व सब लोग मिल जुल कर करते हैं जबकी पति पत्नि रहते हैं के एकल रहने पर सारी व्यवस्था का दायित्व अकेली पत्नि पर आ जाता हैं।
व्यस्त जीवन में बच्चों पर समुचित घ्यान नही दिया जा सकता वह प्रेम और ममत्व जो माता पिता से मिलना चाहिये उसमें कमी आ जाती हैं फल्स्वरूप बालक का मानसिक विकास वैसा नही हो पाता जो सम्मिलित परिवार में संभव हेंै वहाॅ पिता का प्यार तो मिलता ही हैं दादा दादी चाचा चाची ताउ ताई का स्नेह और मार्ग दर्शन भी उसके चतुमर्खी विकास में सहायक सिद्व होता हैं यही कारण हैं कि आज एकाकी परिवार के बच्चे प्रायः कुंठाग्रस्त देखे गये हैं।
महिलाओं व पुरूषों में वृद्वों के प्रति अवमानना और अविश्वास का भाव तो इस कदर बढ गया हैं कि अपने बच्चों के लिये नोकर और बाहरी के व्यक्ति पर भरोसा कर लंेगे पर धर के वृद्व स्त्री पुरूष पर नहीं, यह ध्यान रखा जाना चाहिय की नौकर या बाहर का व्यक्ति पारिवारीक या किसी स्वार्थ वश बच्चों की देख रेख ओर सार संभाल भले ही कर दे परंन्तु उसके साथ आत्मियता और प्यार की जो खुराक बालको को मिलनी चाहिये उससे उन्हे वंचित ही रह जायेगा । आज के समय में हमारी पीठी दूसरो के बच्चो को भाव भरे ह्रदय से दूलारता हागा पर, जब व्यक्ति को उन्हे अपने सहोदर भाइयों की संताने भी फूटी आॅख नही सुहाती औरो के बच्चो को दिया जाने वाला प्यार कहाॅ सच होगा। देखरेख और अन्य बातों का घ्यान जितनी कुशलता से आत्मीयता से धर की वृद्व महिलाये कर सकती हैं उतनी आत्मीयता अन्यत्र कही नही मिल सकती यह वैज्ञानिक सिद्व तथ्य हैं कि ममत्व और स्नेही की छाव में पाला पनपा बालक चरित्र, क्रिया शीलता परिश्रम और देश पे्रम की भावना से ओत प्रोत होता हैं
विधटन के कारण।ंदंपती अकसर संकीर्ण भावना से शिकार हो कर परिवार बसाते हैं परिवार में छोटा भाई ज्यादा कमाता हें बडा कम तो छोटे भाई के लिये उसके मन में यह भाव उठता हैं कि भैया तो हम से इतना कम कमाते हैं फिर भी वह हमारे बराबर सुख सुविधाओं का लाभ उठाते है। ंहमारी कमाई पर हमारा ही अधिकार हैं उसमें किसी भी प्रेकार से किसी दूसरे को लाभ नही उठाना चाहिये यह ओछा और संर्किण विचार दिनो दिन स्थाई होता चला जाता है। अततः परिवार विघटन की और जाता हैं लेकिन जिस उदेश्य से पति पत्नि अलग हुये थे वे कदाचित उदेश्य ही पूरे नहीं होते अलग मकान लेने पर अलग किराया बिजली पानी तेल ईधन दुसरे खर्चे इतने अतिरिक्त पड जाते है ंपर इसेक स्थान पर वह ये सोचते हैं कि हमारी कमाई का लाभ हम ही तो उठा रहे हैं तो उसमें अनुचित क्या हैं आखिर यह तो अपना ही हैं कितना अच्छा होता कि आगे बढने वाली आवश्यक्ताओं और व्यय की कल्पना कर स्वयं को लाभ में मानकर संतुष्ट रहा जा सकता हैं।
युवा दंपतियों को भी और प्रौढ महिलाओं ेको भी एकाकी परिवार बसाते समय इन तथ्यों की और घ्यान देना चाहिये सोचना चाहिये कि जैसा व्यवहार हम आज अपने माता पिता से कर रहे हैं वैसा हमारी संतान हमसे करे तो अपने ह्रदय पर क्या बितेगी। यह कल्पना या मन के बहलावे की बात नहीं है एक सच्चाई हैं क्यों की ऐसे अभिभवक अपनी संतान को सहयोग व सहकार के संस्कारों से सस्कारित करते हेैं
परिवार को टूॅटने से बचाया जा सके और सम्म्लिित परिवार को सामयिक एवं वैयक्तिक परिस्थितियों के अनुसार किसी भी रूप से जीवित रखा जा सके तभी आदर्श समाज की रचना संभव है।
प्रेषक प्रभा पारीक ं
विध्यार्थी का बाल्यकाल सबसे महत्व का समय हैं बच्चों के साथ समझदार बच्चे बनकर माॅ बाप उन पर जितना असर डाल सकते हें बूढे बनकर नहीं बच्चों को आलोचकों की अपेक्षा प्रशसंको की अधिक आवश्यक्ता हैं जिन्दगी की वह उम्र बचपन ही हैं , जिसमें इन्सान को मोहब्बात की सबसे ज्यादा जरूरत होती हैं।
प्रेषक प्रभा पारीक
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