पुस्तक समीक्षा _बलिबेदी पर
लेखिका नीलिमा तिग्गा, ‘निलांबरी’
एक काल्पनिक कथा।
पृष्ठ संख्या_147
प्रकाशक बी एफ सी प्रकाशन
एक E book
प्रकाशन वर्ष 2021
लेखक के संवेदन शील मन के लिए विदित है कि वो समाज से जो लेते हैं ,जो देखते हैं,जो पाते हैं वही तो दे सकते हैं, दिखा सकते हैं , और बता सकते हैं। डॉक्टर नीलिमा तिग्गा जी का यह उपन्यास "बलिवेदी पर" हमारे समाज में महिलाओं को लेकर पुरुषों की विकृत सोच, कुंठित मानसिकता, संस्कारों के अभाव में ग्रसित पुरुषत्व के अह से ग्रस्त उन पुरुषों के प्रति एक अव्यक्त आक्रोश व्यक्त करता है जिनके हाथों हमारे समाज की आधी जनसंख्या अर्थात श्री ( स्त्री) आहत, पीड़ित प्रताड़ित,अपमानित होती आई है। इस कथा के माध्यम से नीलिमा जी ने युगों युगों से अपने अंतर में समाहित नारी के दर्द को ‘आज’ का बाना पहना कर प्रस्तुत करने का सराहनीय किया है । दोहरी मानसिकता का वाहक हमारा समाज जिसका मानना एक तरफ तो कोई भी धार्मिक अनुष्ठान स्त्री की सहभागिता के बिना संपन्न नहीं हो सकता,दूसरी ओर उसी स्त्री के जीवन में कसौटीओं, संघर्षों की कहीं कोई कमी नहीं है उपन्यास के छह खंडों में नारी उत्पीड़न की विभिन्न कथाएं जिनमें लगभग सत्रह पात्रों को लेकर नारी को उसके अलग अलग रूपों में समाज के साथ स्त्री पुरुष के हर तरह के संबंधों के ताने बाने से गूंथ कर उसकी मानसिक अवस्था का सटीक चित्रण किया है। कंचन के सभी गुणों, बेबसी और लाचारी को लेखिका ने उसके जीवन की विभिन्न घटनाओं के साथ इस सहजता से व्यक्त किया है कि हमारे सामने उसके सारे दुख जो उसे इस जीवन में मात्र स्त्री होने के अपराध के रूप में मिले हैं उसकी दुविधाएं, उसका संघर्ष हमारे समक्ष साकार रूप में नजर आने लगते हैं ।
पुस्तक बलि वेदी में जहां लेखिका ने अपने दो शब्दों में उन पंच कन्याओं को स्मरण किया है जिनके नित्य ''प्रभात स्मरण" मात्र से समस्त पापों का नाश हो जाता है फिर वह चाहे स्त्री हो या पुरुष। राम चरित मानस की चौपाइयों से स्त्री की दशा को दर्शाता उपन्यास बलिवेदी अपने कथानक में स्त्री जाति के लिए कमजोर मानसिकता से ग्रस्त लोगों द्वारा दिए गए उपनाम जैसे जन्म जली ,करम जली,मुंह जली, पतंग, पांव की जूती, रुदाली नकारात्मक संबोधन में चिड़िया आदि से संबोधित करते पुरुष, यह आज का चलन नहीं है पुरातन काल में भी कहीं कहीं स्त्री को मात्र भोग की वस्तु के रूप में देखे जाने के प्रसंग नजर आ ही जाते हैं।
स्त्री पुरुष के पारिवारिक, सामाजिक संबंधों की श्रंखला में नारी बहन ,मां कर्तव्यनिष्ठ पत्नी, भाभी जैसे अनेक संबंधों के बंधनों में बंधी खरी उतरती आई है। एक नारी ही नारी की पीड़ा को समझ सकी है। पुरुष द्वारा छली जाने पर भी समाज में बदनामी के भय से मौन रहकर सब कुछ सह जाने को मजबूर होती नजर आती हैं। उपन्यास में निलिमा जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है एक मां अपने दस संतानों का पालन पोषण ठीक से कर सकती है पर दस औलाद मिलकर एक मां को नहीं पाल सकते यह हमारे समाज का कटु सत्य है।नीलिमा जी का उपन्यास "बलिवेदी पर" जिसमे कथा ‘अबला जीवन की कहानी’ अपने प्रमुख पात्र कंचन की और इंगित करते हुए समाज की दोहरी मानसिकता के इर्द गिर्द आगे बढ़ती हैं उपन्यास का प्रमुख पात्र कंचन जो साधारण दृष्टि में शुरू से अंत तक शांत दिखती हैं लगता है जैसे वे निरंतर चल रहे घटनाक्रमों में फंसी अपने हर अपमान को चुप चाप सहते जाने के लिए मजबूर है।
कंचन ने अपने प्रति पहला भेदभाव बचपन में साइकिल को लेकर महसूस किया बड़े भाई ने नई साइकिल देने का जो वादा किया उसे बड़े भाई पूरा करना तो दूर परिवार पर अनेक विकट परिस्थितियां आने पर भी अपने ही बहन भाई तो ठीक मां को भी नहीं संभाल सका । उपन्यास के कथानक में एक माता अपने पुत्र के लिए सबकुछ करती है पर कुलभूषण जैसा पुत्र अपनी जवाबदारी से मुंह मोड़ लेता है और अंत तक पिता की संपत्ति के लिए लालायित रहकर उस छोटीसी संपत्ति पर नजरें गड़ाए दिखता है। आज के समय में जो युवक शिक्षित ई मा नदार हैं , कर्तव्यनिष्ठ हैं उन्हें काम पाने के लिए किस तरह पग पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जुगाड़, रिश्वत, जान पहचान सिफारिश जैसे शब्दों से आहत शिक्षित युवक अनेक बार असफलता के कारण निराश व हताश नजर आते हैं, उन पढ़े-लिखे युवकों की मानसिकता उस वक्त क्या होती है इसका सुंदर चित्रण लेखिका ने किया है। जयंत जैसे युवक जो महत्वकांक्षी हैं होनहार है परिवार का संबल बनना चाहता हैं ,योग्यता होते हुए भी उन्हें वह कार्य जुगाड़ ना होने के कारण नहीं मिल पाता और उनके स्थान पर किसी जान पहचान वाले रिश्वत देने वाले अयोग्य उम्मीदवार का चयन कर लिया जाता है। यह उन मेहनतकश होनहार युवकों के गाल पर तमाचा नहीं तो और क्या है?
विचारणीय है कि हमारे समाज में पुत्री के जन्म से ही जननी उस कन्या के विवाह के सपने संजोने आरंभ कर देती हैं कंचन की मां अपना यह अरमान पुरा भी कर पाई, पर विधान के अनुसार मां तो जन्म भर दे सकती है उसका भाग्य नहीं लिख सकती। विवाह के पश्चात कंचन के कुछ ही दिन सुख से गुजरे थे, कंचन भी अपने संस्कारों से बंधी ससुराल में एक आदर्श बहू बनकर रह रही थी पर पति के महत्वकांक्षी होने का प्रभाव पूरे परिवार पर पड़ा और कंचन पुनः बेघर हो गई। ऐसे में नानी माँ अपनी पुत्री को सीने से लगाए घर में रखने को मजबूर हूं मानसिक रूप से टूटी हुई कंचन जो कि अत्यंत विकट स्थिति में थी कि उसे मनोरूग्ण अस्पताल में भर्ती कराया जाना आवश्यक था। इस अवस्था में कंचन को संभालना मां के लिए भी बहुत कठिन होता जा रहा था। ऐसे में डॉक्टर की आवश्यक को देखते हुए उसे स्वास्थ्य लाभ के लिए अस्पताल रखा गया वहां पर भी चिकत्सा जैसे नोबल व्यवसाय से जुड़े होकर भी डॉक्टर ने भी उसे रोगी ना समझते हुए एक स्त्री देह ही माना।
एक बार फिर घर आने पर भी मानसिक रूप से विक्षिप्त कंचन जब घर के बाहर अनजाने में कदम बाहर निकाल देती है तो समाज कि उनकी नजरों से उसका सामना होता है पेट की भूख की लालच में समाज की नजरों में सम्मानित विवाहित पुरुष जो स्वयं दो युवा पुत्रियों का पिता है वह भी उस असहाय बेबस कंचन पर लगातार शारीरिक शोषण करता रहा और फिर वह एक स्त्री द्वारा अत्यंत दयनीय अवस्था में बचाई गई| तन मन की पीड़ाओं का अभी भी अंत नहीं था मोहल्ले के मनचले युवकों द्वारा अवसर का लाभ उठाकर पुनः हरण कर ली गई इस भयानक हादसे के लिए जब दुखी भाई ने पुलिस का दरवाजा खटखटाया तो उसका सामना एक अलग तरह की सच्चाई से हुआ, जो हमारे रक्षक हैं उन्हें इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं , वह तो अपने कर्तव्य से बंधे हैं अपने कर्म क्षेत्र की सीमाओं से बंधे रहकर अपनी जवाबदारी से पीछा छुड़ाने भर के लिए जैसे कुर्सी पर बैठे थे। सारी बात सुनकर अपने कुसित मन को पीड़ा कथा सुनकर संतुष्ट करने के पश्चात उन्होंने जवाब दिया "तुम्हे अपनी रिपोर्ट लिखवाने के लिए नजदीक के उस थाने में जाना होगा" क्योंकि यह वारदात उस थाना क्षेत्र में हुई है, वह भी तो समाज के रक्षक कहलाने वाले पुलिस पुरूष ही तो थे , जिनकी नजर में इस तरह के अपराध कोई गंभीर अपराध ही नहीं थे।कथा कहती है कि सभी पुरुष एक समान नहीं होते जब भाई अपनी समाज की सताई हुई बहन को नहीं खोज पाया पर उसी समाज के पुरुषों द्वारा भले पैसे का लालच ही हो कंचन एक सुरक्षा आश्रय स्थल तक पहुंच तो जाती है पर वहाँ भी एक बार तो उसके घायल मन और तन को पहली नजर में सब कुछ संशय भरा ही लगता है। पुस्तक में तीन तलाक, हलाला जैसे मजहबी कट्टरता भरे नियमों की सच्चाई पर प्रकाश डालते हुए इस मानसिकता के कारण स्त्रियां वर्षों से कितना कुछ झेलती आई हैं यह मार्मिक कथा के रूप में बताया गया है । इस तरह की पीड़ित स्त्रियां समाज का वह हिस्सा है जो हर पुरुष को हर संबंध को अविश्वास की नजर से देखने समझने का मजबूर है क्योंकि रिश्तो से उनका विश्वास उठ चुका होता है । लेखिका कहती हैं कि पुस्तकों की पढ़ाई सब कुछ नहीं होती; नीलिमा जी ने कहा है कि जब तक समाज का दर्पण अपनी धूमिल होती तस्वीर को साफ ना करें तब तक समाज में स्त्रियों की दशा और दिशा में सुधार की अत्यधिक
अपेक्षा करना निरर्थक होगा कुछ महिलाएं अपने अनुभव से पीड़ित महिलाओं के लिए वटवृक्ष बन कर संघर्षरत रहकर भी ऐसी महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच बन ईश्वर की एक प्रतिनिधि सामान उन महिलाओं को संरक्षण देती नजर आती है जहां धार्मिक अवरोध कोई मायने नहीं रखते | कथा कहती है कि महिलाओं में सामर्थ्य की कमी नहीं है। बस पुरुष अपना बनकर उसे छलना, अवरोध पैदा करना बंद कर दे समय की मांग है कि अब तो उसे अपनों से भी सावधान रहने की जरूरत है। एक समय था जब हमारे समाज में बेटियों को सांझी आबरू माना जाता था। आज परिवार के पुरुषों से ही पीड़ित बेटियों, भाभियों, बहनों की कमी नहीं है।
नीलिमा जी का यह उपन्यास कहीं-कहीं गरीबी, शारीरिक कमजोरी, छलावा जैसे प्रसंगों को समाहित कर नारी की वास्तविक स्थिति स्पष्ट करता प्रतीत होता है| सटीक शब्दों में कहता हैं कि ऐसे समय में घर की दीवारें मूकदर्शक बनकर आंखों
ही आंखों में सांत्वना देती नजर आती हैं, नारी पीड़ा को खुलकर कहती निडरता से व्यक्त करती नीलिमा जी की यह पुस्तक समाज के लिए उपयोगी साबित होगी। क्योंकि यह पुस्तक एक स्पष्ट संदेश प्रसारित करती है कि नारी शारीरिक रूप से पौरुष बल के समक्ष कमजोर हो सकती है पर मन से तन से वह एक मजबूत समर्थ शक्ति है जिसे उससे कोई नहीं छीन सकता। अपने आत्मबल के सहारे वह हर पीड़ा को सहकर पुनः उठ खड़ी होने का सामर्थ्य रखती है। ऐसा मेरा मानना है। उपयोगी पुस्तक की सफलता की कामना के साथ मैं नीलिमा जी का अभिनंदन करती हूं और शुभकामनाएं प्रेषित करती हूं। उनके उज्जवल भविष्य की कामना के साथ उनके मार्गदर्शन की सदैव कांक्षिणी रहूंगी।
प्रभा पारीक, भरूच, गुजरात
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