Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भारत देश का राजचिंह्न ’’सिहंचक्र’’ ही क्यों?

 

महान भारत के राष्ट्रचिन्ह के रूप में जिस ’’अशोक स्तंभ’’ को स्वीकार किया ह,ै वह हमारी प्राचीन संस्कृति और आध्यात्मिक भावधारा का ही प्रतीक है।शासन और शौर्य की द्रष्टि से इसे सर्वदा शासकों ने ही स्वीकार किया है।
प्राचीन समय राज्यों के प्रधानों के आसनो को भी इसी कारण ’सिंहासन’ कहा जाने लगा । शक्ति के वाहन के रूप में सिंहांे का सदैव उपयोग हुआ हेै।और वह इस बात का सूचक भी है कि शासन में सन्निहित रहने वाली शक्ति ’सिंह शक्ति’ के रूप में सूचित होती है।इसके विषय में यह भी माना जाता है कि वह बौद्ध धर्म का चिन्ह होने के कारण धर्म विशेष का संकेत है। यद्यपि इस चिन्ह का प्रमुखता से प्रयोग वस्तुतः बौद्ध काल से हुआ है और उसके पूर्ववर्ती काल में इस प्रकार कि शिल्पकला का कोई प्रमाण उपलब्ध नहींहोते हुये भी चिन्हों का महत्व अत्यंत प्राचीन है।
भगवान शिव का रौद्र रूप भी तो सिंह समन्वित माना गया है विगत काल की अनेक पुरातन राज्य मुद्राएं सिंह की सुन्दर आकृति से अलंकृत हुई है।भारत के इतिहास पर नजर डालें तो अशोक के समय कला और शिल्पांकन का चरम विकास हो गया था,उस काल में सिंह का अत्यंत सुन्दरता से अनेक स्मारकों पर स्वाभिक प्रयोग हुआ है,इस सिंह आकृति को भारत ही नहीं जावा,सुमा़त्रा,मिस्श्र्र,सुदूर जर्मनी में भी अत्यंत सम्मान का स्थान दिया गया है पुरातन मिश्र्र की मूर्तिकला में सिंह की आकृति अधिक उपलब्ध होती है हां भारतीय सिंह और इजिप्शियन सिंह के निर्माण में साधारण सा अंतर अवश्य मिलता है।वह सिंह के चेहरे पर नजर आते हाव भाव को लेकर है।
भारत में भी युद्व संसाधनों को जिस प्रकार के ’द्विपक्ष सिंह’ के वाहन से अंकित किया गया है, वह उसी इजिप्शियन सिंह के साथ मेल खाता है। संम्भवतः यह इजिप्ट मंेे भारतीय अनकृति हो ,भारत में भी अशोक ने ही सिंह की महत्ता स्वीकार किया हो ऐसा नहीं है।ईसा पूर्व की प्रथम सदि में अनेक राज मुद्राओं और स्तंभेंा पर सिंह को सम्मान मिला हेैं।ईसा पूर्व महाक्षत्रिय भूमक ने भी अपनी मुद्रा पर सिंह व चक्र के चिन्ह का प्रयोग किया है। जो कि प्रमाणित है कि वह बौद्व धर्मानुयायी नहीं था। इतिहासकार स्मिथ की तो धारणा है कि भूमक की यह राज मुद्रा पर्शियन शासको की अनुकृति है यदि यह सत्य है तो इसका यह अर्थ है कि सिहचक्र सिंहाकित मुद्रा बाहरी शासको को भी मान्य थी।
सिंह की त्रिमूर्ति में सत्व ,रज, और तम की भव्य भावना समाविष्ट है और सत्य अहिंसा दया का भी यह प्रतीक है सिंह हिंसक जीव है यह सत्य है पर वह शौर्य व पराक्रम एंव शक्तिं का उपादान भी है इसलिये शासकीय पराक्रम का प्रतीक माना गया है।आधिपत्य भावना लिये हुये है न कि हिंसक भावना।
सम्राट अशोक ने सिंह को शासन मुद्रा में समाविष्ट किया हैै,यह उस काल की सोच है जब सम्राट अशोक का महानतम चंडरत पूर्ण हो गया था ,और उनमें सात्विक अहिंसा भावना तीव्र हो गयी थी,हिंसा व युद्व से उसे घ्रणा हो गयी थी,एक मात्र आघ्यात्मिक तथा धर्मिक भावना के प्रबल प्रभाव से चंड से उसे’’ प्रियदर्शी’’ एवं ’देवानाप्रिय’ ’बना दिया था एक भी जीवन की हत्या उसे प्रकंपित कर देती थी पशुओं के लिये भी वह अस्पतालों का निर्माण करवाने लगा था।इस लिये यह घारणा भ्रांत है कि हिंसक जीव के नाते उसने सिंह को स्वीकार किया था।सिंह के मस्तक पर घर्म चक्र को प्रतिष्ठित करके उसने यह प्रमाणित कर दिया है कि सिंह सात्विक भावना का द्योतक है।पुराने कोषकारों ने सिंह को श्रेष्ठता का सूचक माना है।
सिंह के साथ जिस चक्र का प्रयोग हुआ है वह भी बौद्वों का नहीं है वह भारतीय परंपरा की आघ्यात्म भावना का ,जीवन की प्रगति औी समदर्शिता का सूचक है।अशोक ने तो इसे अपना लिया हे पर पर भगवान बुद्व ने जिस धर्म चक्र प्रवर्तन का काम किया है।वह आघ्यात्मिक है । आघ्यात्म भावना में द्वाद्वशार मणिपुर चक्र और ह्रदय कमल के विकास की जो उच्च कल्पना है,उसी चक्र के स्वरूप का प्रर्दशक है।भारत के प्राचीनतम विकास से जो उच्च कल्पनाओं पंचमार्ग मुद्राओं पर इस प्रकार के चक्र का बहुत जगह उपयोग हुआ है।और चक्रांंिकत मुद्रा उज्जेन की मुद्रा मानी जाती हैबौद्व धर्म को ही ले तो जंहा इस चक्र का उपयोग हुआ हैै वह भी कोई स्वतंत्र धर्म नहीं , उसका मूल भी वेद और उपनिषदीय अध्यात्म भावना है। ंबौद्व घर्म जिन सिद्वान्तों का प्रतिष्ठित है उन सिदान्तो का संहिता और आरण्यम ग्रन्थों में पुरातन काल पें प्रतिपादन होता रहा है।
आरंभ में जिसका नाम वैदिक या ब्राहम्ण घर्म था वही बौद्व और जैन दो घाराओं में विभक्त हो गया बौद्वों का मूल सिद्वान्त दुखवाद रहा है यह हमारे घर्म ग्रथों की साघारण बात है।सांख्य दर्शन म्ेंा दंुःख निवृत्ति की मिमंासा प्रघान रूप से की गयी है।और जिस जरा मरण और जरा व्याधि का बुद्व ने विश्लेषण किया है वह छांदोम्य उपनिषद वृहदारण्यक और श्वेताश्वेतर में पर्याप्त चर्चित हुआ है।बुद्व ने सत्य चतुष्ट का महत्व प्रतिपादित किया है वह हमारे पातांजलि दर्शन का भी विशेष विषय रहा है इसी प्रकार बुद्व का मध्य मार्ग भी बौद्वायन सु़त्र के द्वारा हमारा पुर्व परिचय है इस तरह बुद्व सिद्वान्त के मूलतत्व अलग नहीं करते।उनका थेाडा परिवर्तित रूप ही बुद्व घर्म में है। अवश्य ही बुद्वकालीन शिल्प अत्यंत समुन्नत हुआ है कला से प्राण हुयी है परंतु बुद्वकालीन प्रद्योत आदि राजवंशों की उन्नती और सुवणर््ा कालीन साहित्य का जिन्होने अनुशीलन किया है उन्हे यह भी स्वीकार करना पडेगा कि हमारे कला कौशल ने इस दिशा में भी सफल साघना की है।
सिंह स्तभ और चक्र का प्रस्तुत रूप हमें सर्वप्रथम सारनाथ में दिखाई पडता है।इस पर धर्म चक्र रहा है,इस प्रकार पुरातन चित्र में सूयाकिंत अथवा चद्राकित स्तम्भों की शिल्प और सिहं की सुघर आकृति वास्तव में अप्रतिम एवं अद्वितीय है। भरतीय शिल्पियों ने इसे बडे प्रवीणता के साथ सवथर््ाा भारतीयता में परिणित कर दिया ओर जो घर्म प्रचार व मानव कल्याण की आदर्श भावना को लिये हुये ही है।
दया ,दान अहिंसा ,धर्म और दुख निवृति ही उसके मूल में भी है।फिर जिस धर्म चक्र का यह परम उदार , पर धर्म सहिष्णुता पूर्ण आर्दश रहा है वह भारत जैसे विभिन्न धर्ममत विचार वाले विशाल देश का राजकीय प्रतीक बनने का भी अधिकार रख सकता है
हमारा यह राष्टीय चिन्ह इतिहास संस्कृति और उदार भावना का सुन्दर समन्वय साघक है।

 

 

 

 


प्रेषक प्रभा पारीक जयपुर

 

 

 

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