जीवन में लायंे संतोष धन
मानव जीवन विभिन्न गुणों से विभुषित है।उनमें से एक प्रमुख गुण संतोष को माना
गया है। संतोष के सम्बन्ध में अनेकानेक जिज्ञासाओं पर विचार करने के पुर्व यह
समझाना आवश्यक है कि संतोष कहते किसे है ?संतोष मनुष्य जाती के उघ्र्वगामी
चिंतन का सर्वोत्कृष्ट बिन्दु पथ है संतोष इस लोक के साथ परलोक कल्याण का भी
मार्ग प्रषस्त करता है संतोष की यात्रा व्यक्ति से होकर समष्टि की और जाती है अर्थात
व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट,और राष्ट्र से विश्व बंधुत्व का
भाव जाग्रत करता है संतोष का अर्थ है सम्यक तोष अर्थात अच्छी तरह से प्रसन्न
रहना ।तात्पर्य है कि कोई भी स्थिति हो ,कुछ प्राप्त हो या अप्राप्त हो हर परिस्थिति में
प्रसन्न रहना ही संतोष है। कामना की पुर्ति से हमें संतोष मिल सकता है।लेकिन
उसके बाद दुसरी कामना जाग्रत होने पर हम फिर असंतोष की ज्वाला में जलने लगते
हैं
प्रायं सुख की कामना हम सभी को होती है पतंगा भी सुख चाहता है और उसी सुख की
चाह मंे स्वय ं को अग्नि मंे समर्पित कर देता है अर्थात प्राणान्त।महर्षि पातांजली ने पाॅच
नियमांे की व्याख्या करते हुये सुतोष नियम के बारे म े लिखा है सतोष्दनुत्तमसुखलाभः अर्थात
संतोष उत्तम ही नहीं उत्तमोत्तम सुख का लाभ प्राप्त होता है जीवन में संतोष आ जाने
के बाद फिर किसी सुख की कामना अथवा आकांक्षा नहीं रहती।उत्त्मोत्तम सुख मिलन े पर
कोई दुसरा सुख शेष नही रहता कहते भी है कि इच्छायंे कभी भी मनष्ु य को एक मिनट भी
शांत नही बैठन े देती वह एक इच्छा की पुर्ति करता है तो दुसरी तैयार हो जाती है मगु ल
समा्रट औरंगजेब को यद्धु ,हिंसा ,धार्मिक कट्टरता धर्म परिर्वतन कार्य मंे लिप्त रहने के बाद
अपने जीवन के अंतिम समय में बोध हुआ और उसने अपने पुत्र मुअज्जम को पत्र लिखा कि
’’बेटा मरा यह जीवन निर्रथक रहा है। मंै जीवन भर अपनी अनंत ईच्छाओं के पीछे भागता
रहा और मुझे कभी शन्ति नहीं मिली मुझे अब यह बोध हुआ कि मैं इस संसार में खाली
हाथ आया था और अब यहाॅ से खाली हाथ जा रहा हंू किन्तु तमु ऐसा मत करना इस
सीख का मुअज्जम ने जीवनपयनर्् त अनुसरण किया जिसका प्रभाव यह हुआ कि अपने पिता
के मुकाबले सुख और शान्ति से अपना जीवन व्यतीत कर सका संसार में प्रायः जितने भी
महापुरूष हुय े है उनमंे संतोष घ्न की प्रधानता रही है भगवान महावीर,गौतम बुद्ध दोनों ही
अपने राज्य के राजकुमार थे उन्हाने भोग विलास व राजपाट की आकांक्षाओं को त्याग कर
संन्यासी जीवन अपना कर जनज न के दिलों में अमर हो गये। विभिन्न धर्मो में भी संतोष
को नैतिक मुल्य माना गया है
सतं ोष महत्वकांक्षाआंे का विराम नहीं है वरन ् एक अंघी लालसा का विरोधी तत्व है हम
आगे बठें उत्तरोत्तर प्रगति करें किंन्तु एक निश्चित ढंग से नियमित रूप से प्रगति करें
बेतहाश दौडें नहीं क्यों कि उसमें ठोकर लगकर गिरने की पूरी पूरी संभावना है इसलिये
इस अपरिमित संसार में संतोष ही सबसे बडा धन है।
’’यद्यपी संतोष एक कड़वा वृक्ष है तथापि इसका फल बडा ही मीठा और स्वादिष्ट है’’
प्रेषक प्रभा पारीक मुम्बई
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