’’सुनहु मात सोहि सुत बड़भागी जो पितु मात वचन अनुरागी।’’
मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने अपनी जननी को यह कह कर अपने वन जाने के पक्ष में तर्क दिया था कि ’’हे माता वही पुत्र भागयशाली है जो अपने माता पिता के वचनों का पालन करता है ।’’
हर व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके जीवन की धारा निर्धारित हो जाती है उसी क्रम में भगवान् राम का जन्म और उनका व्यवहार ,उनके अपने आदर्श । भगवान राम ने अपने बचपन से किशोरावस्था तक के दौरान कभी किसी मर्यादा का उल्लघन नहीं किया। राम की उचित वय जानकर पिता राजा दशरथ ने अपने जीवन में मोह माया के त्याग व विरत्ती के भाव से हाथ जोड़ कर मुनि वशिष्ठ से निवेदन किया कि स्वामिन् आपका विचार उत्तम है । और अयोध्या में राम के राजतिलक की तैयारियाँ होने लगी। पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था।
मात-वचन सुनि श्रवत नयन जल ,कुछ सुभाउजनु नरतनु-पायक
तुलसिदास’ सुरकाज न साध्यौ तौ दोष होय मोहिं महि आयक।।
राजा दशरथ ने हाथ जोड़ कर मुनि वशिष्ठ से निवेदन किया कि
’’स्वामिन! आपकी कृपा और आर्शिवाद से ही भगवान् शंकर ने मेरा कल्याण किया है अब मेरे ह्रदय में एक यही अभिलाशा है कि रामचन्द्र जी मेरे जीवन काल में ही युवराज हो जाये फिर मुझ इसको कोई सोच नहीं कि मैं जीवित रहूँ या नहीं।’’
’’वशिष्ठ जी कहने लगे
’’यह आपे बड़ा अच्छा कार्य सोचा है इसमें देर न कीजिये। यदि विधाता अनुकूल होतो हम सब भी अपना जीवन सार्थक कर लें’’
इस प्रकार का सुखद संवाद सुनते ही सारी अयोध्या में उल्लास का स्त्रोत बहने लगा। परन्तु कैकई को दुःख हुआ और देव माया से प्रेरित होकर उसने दारूण कुटिलता का अभिनय आरम्भ कर दिया। कौशल्या अपने भवन में समाचार सुनकर देव मना रही थी। कुछ ही समय बाद उन्हे विपरीत समाचार भी मिल गया जब पुत्र राम मां से अपने व सीता के वन गमन की आज्ञा लेने आये। कौशल्या भगवान् रामचन्द्र को संबोधित कर कहने लगी।
रहि चलियक सुन्दर रधुनायक
जो सुत तात वचन पालन रत जननि उ तातमानिबे लायक।।
बेद बिदितयह बानी तुम्हारी रधुपति सदा संत सुखदायक
राखहु निज मरजाद निगम की ,हौं बलि जाऊँधरहु धनुसायक ।।
सोक-कूप पुर परिहि,मरिहि नृप,मुनि संदेस रधुनाथ सिधायक
यह दूसन विधि तोहिं होत अब रामचरन वियोग उपजायक।ं
’’हे पुत्र तुम मुझे प्राणों से अधिक प्यारे हो ।मैं श्रुतियों द्वारा समर्थन की हुई सत्य प्रतिज्ञा को दूर करने के लिये तैयार हुं। जिसके कारण तुम्हारे संग वियोग होता है बिना अधिक परिश्रम किये हुये ही सब साधानों के परिणाम स्वरूप तुम्हें पाया था। उसको तो सम्हाला नहीं परन्तु राजा धर्मशील बनना चाहते हैं वास्तव में वह केकई के फेरे में पड़कर सब कुछ हार गये हैं।
कौशल्या कहने लगी
’’हे पुत्र आप यहीं रहिये !जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा पालन में इस प्रकार लगा हुआ है उसे अपनी माता का आदेश भी मानना चाहिये’’ कौशल्या कहने लगी
’’हे राम ,मेै कैसे इस राज मंदिर में रह सकूगी। तुम्हारा मुख सरोज देखे बिना पल मात्र का समय भी एक युग के समान व्यतीत होगा परन्तु यदि चैदह वर्ष पूरे होने पर भी मैं जीवित नहीं रही तो इस प्रेम का क्या ठीकाना इससे अधिक प्रेम की अधमता क्या होगीं’’
माता की लोकोत्तर प्रीती देख कर और विनयपूर्ण वाणी सुनकर सह्रदय भगवान् रामचन्द्र एक पग भी आगे न चल सके ।उन्होने माता को विनय पूर्वक कहा किन्तु माता मैं आपके प्रेम वश अयोध्या में ठहर भी जाता हुं तो देव ब्रह्मण और पृथ्वी का भय कौन दूर करेगां यदि मैने देवताओं का कार्य पूर्ण न किया तो नर रूप धारण करके पृथ्वी पर आने का व्यर्थ ही दोषी बनुँगा । उन्होने माता कोशल्या को धैर्य देते हुये कहा ’’माता मै अवश्य आउँगा’’ कोशल्या ने अनेको बार राम को याद दिलाया था कि पिता की आज्ञा से वन जा सकते हो तो मां की आज्ञा मानकर अयोध्या में ही रह जाओं पर मर्यादा पुरूषोत्तम राम के जन्म का उदेश्य भी तो तभी सफल था जब वह वन जायें और उनके निमित्त कामों को पूरा करे जिनके लिये उनका इस पृथ्वि पर जन्म हुआ थां
प्रेषक प्रभा पारीक भरूच गुजरात
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY