Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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माता कैकई के राम

 

हर घर में एक राम हो तो एक कैकई भी हो यह समय की माॅंग है
मैंने जब जब भी कैकई चरित्र के बारे में सुना पठा , मुझे कैकई एक अत्यंत संवेदन शील, दूरदर्शी मातृत्व के गुणों से भरपूर महत्वकांक्षी माॅ नजर आई है। जिसने पुत्र राम को जिसे वह अत्यधिक स्नेह करती थी। उनमें अन्र्तनिहित शक्तियों , कौशल व बुद्वी के साथ विवके विनम्रता को पहचाना। बाल्यकाल में चारो भाईयों के एक साथ खेलते खाते समय राम के क्रिया कलापों को परखा जो बाल सुलभ होते हुये भी अन्य भाईयों से भिन्न थे। राम के उन तेजस्वी व्यक्तित्व को प्रकाशित करने वाले गुणों पर ध्यान केन्द्रित किया।
कैकई की दूरदर्शिता का परिणाम था राम का वनवास। यह जानते हुये भी की राम को वनवास देने से । उसके दोनों कुल को कलंकित होंगे। इतिहास उसे आदर से नहीं देखेगा पर यह राम के हित में होगा। वनवास के बावजूद कुल किर्ती को बढाने का श्रेय यदि राम ने पाया तो कैकई के कारण.... राम ने वनगमन के समय पिता दशरथ और माता कोशल्या को अनेक बार सांत्वना देते हुये कहा था, वन जाना उनके लिय हितकारी होगा।
सुन जननि सोई सुत बड़ भागी ,जो पितु मात चरन अनुरागी
तनय मातु पितु तोषनिहारा,दुर्लभ जननि सकल संसारा।।
अर्थात-हे माता वही सुत बड़ भागी है,जो पिता माता के वचनों का अनुरागी(पालन करने वाला)है।माता पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र सारे संसार में दुर्लभ है।माता कौशल्या को समझाने सांत्वना देने के लिये इससे सुन्दर शब्द नहीं हो सकते थे क्यों कि कोमला ह्रदया कोशल्या के लिये संस्कार प्रमुख हैं भगवान् राम ने माता से कहा आप सब प्रकार के संशयो का त्याग कर मुझे आर्शिवाद दें। यदि राम वन नहीं जाते तो अयोघ्या के युवराज अथवा राजा बनकर राम अपने व्यक्तित्व कौशल का विकास कैसे और कहाॅ कर पाते । कोई ध्येय भी तो सामने नहीं था।उस काल में जिस तरह के ध्येय एक राजा के लिये प्रस्तुत होते हैं उनके लिये विशाल सेना भी होती है।पिता के विशाल सामराज्य कौशल देश के कोई शत्र.ु भी नहीं थे। छोटी वय में राम में जिस प्रकार का गंाभिर्य था व ईश्वर प्रदत अनेक गुणों का विकास और उन्हे समाज उपयोगी बनाने का अवसर उन्हे अयोघ्या के बाहर ही मिल सकता था। आवश्यक्ता थी मात्र मार्ग दर्शन की। जन्म दिया था कोशल्या ने इस लिये वह जननी कहलाई पर माॅ की तरह तराशा मार्ग दिखाया महत्वकांक्षा का बीज बोया । ओर उसे फूलने पल्लवित होने का अवसर दिया माता केकई ने ।राजा दशरथ के पुत्र तो और भी थे पर उनमें उतना सार्मथय और शक्ति कहाॅ थी जो राम में थी
अयोघ्या के बाहर निकलते ही राम ने जीवन का वास्तविक रूप देखा। अयोध्या से बाहर निकलते समय ही माता कैकई ने जब पुत्र राम व पुत्र वधु को अलंकार वस्त्र सब से मुक्त कर दिया।समाज की नजर में यह एक निंन्दनिय कृत्य था पर सैद्धान्तिक रूप से ये सही था वनवासी होने का अर्थ ही तो माया मोह से दूर रहना है अर्थात किसी प्रकार की माया जीवन में बंधन होना लक्ष्य के लिये बाधक होंगे ऐसा कैकई जानती थी। पुत्र के लिये इन सब का कितना महत्व हैं यह भी माता से ज्यादा कोई नहीं जानता....लक्ष्य.को पाना ही ध्येय था ।रोगी के उपचार के लिये डाक्टर भी तो चीर फाड करता पर अन्ततः वह होता रोगी के हित में ही हैं ठीक उसी प्रकार कैकई कौशल्या दशरथ के राम के प्रति अगाढ स्नेह से परिचित थी। इसी लिये राम ने कहा था
आयसु देहि मुदित मन माता, जेहिं मुद मंगल कानन जाता ।
जनि सनेह बस डरपसि भोरें,आनंन्द अंब अनुग्रह तोरे।ं अर्थात राम ने कौशल्या से यह भी कहा हे! माता तु प्रसन्न मन से मुझे आज्ञा दें जिससे मेंरी वन यात्रा में आनन्द मंगल हो । मेरे स्नेह वश भूलकर भी डरना नहीं ।हे माता तेरी कृपा से आनन्द ही होगा।
रानी कैकई की सोच अन्य रानीयों से प्रथक क्यों थी क्यों की वह भिन्न परिवेश से आई थी उम्र में सबसे छोटी रानी थी। स्वयं युवा थी युवा सोच थी अयोध्या के बाहर का जीवन देखा था उन्हाने, इसी लिये उन्हेाने राम के लिये कार्य श्रेत्र चुना वन जहाॅ पगपग पर चुनौतिया थी कठिनाईया थी और उनको पार कर लेने का अथाह संतोष और आत्म विश्वास भ्ंाी।पृथ्वी पर अनेक तरह की जातियाॅ प्रजातिया वन प्रदेश संस्कृतियां मानव व अमानव के अनेक प्रकार जिनसे दिन प्रतिदिन का सामना होगा कितना कुछ जानने समझने के लिये था। यदि हम यह माने की राम का जन्म ही राक्षसों के वध के लिये हुआ हैं तो क्या अयोघ्या में रहकर ये संभव था।क्या परशुराम जैसे ऋषि का सामना करना रावझा जैसे शिवभक्त से टक्कर लेना आसान रहा होगा राम के लिये।और भ्ंीद कई चुनोतिया दिन प्रतिदिन आती रही जिनका सामना इन चैदह वर्षो में करते रहे राम।
जानती थी कैकई की माता कौशल्या उनके इस निर्णय से नाराज होंगी पर साथ में यह भी जानती थी माता कौशल्या को अनेकानेक तर्क देकर समझाया जा सकेगा और माता सुमित्रा ने तो अपना स्वयं का पुत्र राम का अनुगामी बनने को प्रस्तुत कर ही दिया था। राजा दशरथ को राम की माया ने एैसा जकडा कि वह छूट ही नहीं पाये ।पर राम से पुत्र के पिता होने का गौरव वह कैकई के कारण ही पा सके थे। एक नवयुवक होकर राम स्वयं भी जानते थे कि आने पाला जीवन पुष्पाछादित्त तो नहीं होगा पग पग पर कंटक हैं तो पिता दशरथ की किर्ती थी जो उन्हे गुरू का उचित मार्ग दर्शन दिलाती रहेगी। स्वयं का गुरूकुल के दोरान का संपर्क व्यवहार कुल मिला कर राम के लिये अनुकूल वातावरण बनाये रखने में सहयोगी रहे।
नवीन सोच और राम के प्रति मोह ने कैकई को इस के लिये प्रेरित किया होगा। संभवतः... मैं विचार करती हूॅ आज के उन युवाओं के विषय में जिन्हे उनके अभिभावक बिना उनके गुण कौशल की परख किये योग्यता का उचित आंकलन किये बैगैर उन्हे एक मोटी रकम हाथ में पकडा कर अपने कर्तव्यों की इति मानते हुये उन्हे उच्चतर शिक्षा के लिये दूर अन्जान जगहो पर भेज तो देते हेै और जीवन के लिये अति आवश्यक संस्कार को देना भूल जाते हैं सभी अभिभावको का कर्तव्य हैं कि वह अपनी संतान में अन्र्तनिहित खूबियों,ं कौशल को पहचान कर उन्हे आगे बढने विस्तार करने के उचित अवसर दें जिससे लिये प्रथम आवश्यक्ता हैं उचित संस्कारो के सिंचन की। संस्कार विहिन मनुष्य पशु समान है।बालक राम ही क्यों चारों भाईयों के लिये माता कोशल्या,माता सुमि़त्रा पिता दशरथ और गुरू वशिष्ठ संसार सिंचन का काम कर रहे थे। संस्कार देने का काम लम्बी प्रकिया हैं। संतान के जन्म से ही आरंम्भ हो जाने वाली प्रकिया जिसमेें अथाह धैर्य की आवश्यक्ता होती हैं उसी में तो हम पीछे रह जाते हैं आज के अभिभावक और उसका परिणाम हैं माता पिता की आशाओं पर खरे न उतरने वाले बालक।
जिस दौरान राम में संस्कार सिंचन की प्रक्रिया घावमान थी उसी दौरान माता कैकई अपने घ्यान का केन्द्र बिन्दु कुछ अलग ही बनाये हुये थी। जिसे उन्हाने राम की उचित वय आने पर राम के लिये उचित निर्णय ले कर कर दिखाया था। आज यदि माता पिता चाहें कि उनके बच्चे उच्च शिक्षा के लिये घर के बाहर निकलें तो संस्कार की पूंजी उन्हे अवश्य थमायें न कि भौतिक पूंजी और पहले परख करें कि उनकी संन्तान में योग्यता का स्तर क्या है आपके घन के बल पर वह डीग्री तेा अर्जित कर सकेगे पर शिक्षा नहीं अतः हर घर में कौशल्या सी माता के साथ कैकई सी जननी भी हो यह आज के समय की मांग हैं। अपने बालक की क्षमता को परख कर उसे ऊॅची उडान के अवसर अवश्य प्रदान करें पर उससे जरूरी हैं संस्कार जिन्हे देना न भूलें।

 

 

 

प्रभा पारीक

 

 

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