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कौंडिन्य : विस्मृत वैभवशाली अतीत से साक्षात्कार

 

 

प्रभुदयाल मिश्र

 

 

डा. सुशील कुमार पाण्डेय ‘साहित्येंदु’ का महाकाव्य ‘कौंडिन्य’ समुद्र पार भारत का वह महाभियान है जो इतिहास और काल को अतिक्रांत कर भारत के भविष्य की भूमिका गढ़ता है. शोध और साहित्यकी का ऐसा संगम विरल ही कहा जाना चाहिए. वैदिक, पौराणिक, पारंपरिक और शोध शास्त्रियों द्वारा अभिप्रमाणित धरती के मानचित्र पर खींची गहरी रेखाओं में अदृश्य दूरियों तक जाते एक चरित नायक का ऐसा अभिचित्रण इस कृति को संकल्पना की अचिन्त्य ऊंचाई प्रदान करता है.

 

 

‘सर्गबद्धो महाकाव्यम् तत्रैको नायकः सुरः’ . देव ऋषि के समतुल्य धीर प्रशांत नायक ‘कौंडिन्य’ (नायक और कृति, दोनों ) महाकाव्य में १८ सर्ग हैं. यह कथा फ्लेश बेक में कहते हुए कवि जैसे वर्तमान के प्रति अपनी जागरूकता से बेखबर नहीं है. जब हमारा वर्तमान प्रत्यक्ष प्रमाण देने लगे तो अतीत और इतिहास के प्रति आशंका और अविश्वास सहज ही तिरोहित हो जायेंगे. और यह अंगरेजी के कवि कोलेरिज का ‘एनसिएंट मेरिनर’ भी नहीं है जो अपनी कहानी के द्वारा श्रोताओं को किसी जादुई संसार में भुला देना चाहता है. अलावा इसके निश्चित ही यह जायसी के पद्मावत की भी प्रेम कथा नहीं है जो ‘कौंडिन्य’ को स्त्री-राज्य कम्भोज की सैर कराती है.

 

 

यदि इसमें प्रभाव देखना है तो यहाँ मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ और ‘साकेत’, अयोध्यासिंह उपाध्याय का ‘प्रिय प्रवास’, जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’, और रामधारीसिंह दिनकर की ‘उर्वशी’ आदि सभी की छायाएं सहज ही सुलभ हैं- शिल्प और कथ्य दोनों ही दृष्टियों से.

 

 

एक महाकाव्य के नायक को इतिहास, परम्परा अथवा मिथक में ज्ञात होना चाहिए. कौंडिन्य इस तरह विज्ञात महानायक नहीं हैं किन्तु इस रिक्ति की पूर्ति विद्वान कवि ने अनेक शोध विवरणों और सम्मतियों से की है. यहाँ तक कि ‘साहित्येंदु’ महाकाव्यकार ने अनेक पुरातात्त्विक सन्दर्भ देकर आरम्भ में अपनी भूमिका में पूरी तरह से यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि कौंडिन्य के महाकाव्यत्व को अभिप्रमाणित करते हुए उसके समक्ष पुराण, इतिहास, पुरात्तत्त्व और अधीत विद्वानों के आधार मत हैं. कवि ने यह स्पष्ट किया है-

 

 

‘जहां तक कौंडिन्य गाथा की एतिहासिकता का प्रश्न है, वह चीन तथा कम्पूचियाँ के पुरानों पर आश्रित है परन्तु मेरी कौंडिन्य गाथा तो इतिहास का विवरण नहीं, इतिहास का उपबृह्मण है.’ (पृष्ठ ७) इस कथानक के सम्बन्ध में श्री सत्यवृत शास्त्री, राजेन्द्र मिश्र, श्री कल्याणमल लोढा तथा श्री राममूर्ति आदि प्रभृति मनीषियों ने जो कहा है, उसकी जहां अपनी प्रामाणिकता है, वहीं इतना कहा जाना सर्वथा अभीष्ट है कि एक अल्पज्ञात चरित्र को भी सुकवि संवेदना ने जो उदात्तता प्रदान की है वह सर्वथा श्लाघनीय है. वस्तुतः इसके मूल में कवि की वह सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय अस्मिता का भावबोध क्रियमाण है जो भारत को अपने मूल शिखर स्वरूप में प्रतिष्ठित करना चाहता है –

 

 

जग के तममय आँगन में

आलोक विविध विधि विखरे .

भू-अम्बर-गिरि -कानन में

श्रुति-संस्कृति अविरल विखरे .

(पृष्ठ २९४)

 

 

महाकाव्य का शिल्प आत्मकथात्मक है. इस विधा के प्रयोग से कवि को जहां दुर्लभ्य पात्रों के प्रकाश की आवश्यकता से छुटकारा मिला है वहीं महानायक कौंडिन्य के चारित्रिक विकास में भी सहायता मिली है. अपनी विश्वविजय की पताका फहराकर राजर्षि कौडिन्य अपने देश में अपने शिष्यों को सविस्तार अपने अभियान और भारतीय संस्कृति के प्रसार के महागान को स्वर देते हैं. एक महाकाव्य में श्रृंगार और वीर रस का उचित परिपाक हो अतः यहाँ स्वर्ण-राज्य की रूपसी राजकुमारी चित्रा का प्रेम और कम्बोज विजय का रोचक परिदृश्य उपस्थित है-

 

 

नयनों में नेह निमंत्रण

संकेतों में थी ज्वाला

वाणी में भरी सरसता

थी अंग-अंग में हाला .

(प्रस्ठ २५१)

 

 

किन्तु यह प्रेमी असाधारण है-

वह प्रणय बना मंगलमय

पीड़ा की उस छाया में

बन तेजपुंज था दीपित

हम दोनों की काया में. (प्रस्ठ – २७२)

 

 

 

अंततः जब कौंडिन्य ने शस्त्र और शौर्य के आधार पर कम्बोज में विजय प्राप्त करली तो उन्होंने शास्त्र पर आधारित सांस्कृतिक परिष्कार का कार्य किया-

 

 

होता, ऋगवेदोंनायक

अध्वर्यु, यजुष उच्चारक

था सामवेद का गायक

उद्गाता अतिगुणशाली

मैंने नारियल चढाया

नर बलि, पशु बलि के बदले

था हिंसारहित बनाया

यज्ञों की परिपाटी को .

प्रस्ठ – २८६-२८७)

 

 

जैसाकि अभीप्सित माना जाता है, इस महाकाव्य में कवि ने १८ सर्ग रखे हैं. यह अवश्य है कि कथाक्रम, आकार और विषय वैविध्य की द्र्ष्टि से इनमें वह कसावट दिखाई नहीं देती. यहाँ तक कि मुद्रण परिकल्पना के समुचित उपयोग और प्रयोग न होने के कारण एक सर्ग से दूसरे सर्ग में प्रवेश का भी पता लगाना आसान नहीं जाता.

 

 

तथापि समग्रतः यह एक महनीय दिशा और गहन सांस्कृतिक धारा की ऐसी कृति है जिसकी भारतीय संस्कृति चेताओं को आज महती आवश्यकता है. इस अर्थ में यह परं स्वागतेय सर्जना है. विद्वान, वरेण्य और सुधी रचनाकार को कोटिशः साधुवाद .

३५, ईडन गार्डन, कोलार रोड, भोपाल १६ , ९४२५०७९०७२

 

 

 


कृति – कौंडिन्य (महाकाव्य)

कृतिकार- डा. सुशीलकुमार पाण्डेय ‘साहित्येंदु’

प्रकाशक- कौंडिन्य साहित्य सेवा समिति पटेलनगर, कादीपुर, सुल्तानपुर

 

 

 

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