Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

गुमनाम

 

 

इन खामोश राहों को,गुमनाम न होने दो,

धूल से धुंधली,न असमानों को होने दो,

कई मिटा,कई थका और कई इन राहों पे,

चल पड़ा दौड़कर सो गया मंज़िल गोद मे,

पसीने की धार रक्त से सींचकर,

और लड़खड़ाता निशान न अभी मिटने दो,

इन खामोश राहों को,गुमनाम न होने दो,

धूल से धुंधली,न असमानों को होने दो,

 

 


बरसात के बुंदे भी,नदियों के धार से मिलकर,

सूरज की तपिसभी,बंजर जमी से मिलकर,

अंधियों की रफ्तार भी,धूल से मिलकर,

सावन किन कशिश भी,पूर्णजागरण से मिलकर,

न हुआ बहुए-हिममते निशान मिटाने को,

इन खामोश राहों को,गुमनाम न होने दो,

धूल से धुंधली,न असमानों को होने दो,

 


हमारी बेपरवाही,हमारी पूर्वजों की अस्थि को,

ये चकाचोंध,हमारी विरासत को,

नया सोच,हमारी सभ्यता को,

नया खोज,हमारी अपनी अस्तिव को,

 कहीं,स्वतः ही विनाश न होने दो,

इन खामोश राहों को,गुमनाम न होने दो,

धूल से धुंधली,न असमानों को होने दो,

 


न धरा रहेगा,न पनपे जीवन की बीज,

न पानी रहेगा,ना प्रस्फुटित बीज को कोई सींच,

रक्त ही रक्त,असमानों के नीचे न होने दो,

इन खामोश राहों को,गुमनाम न होने दो,

धूल से धुंधली,न असमानों को होने दो,

 

 

 

:-प्रबोध राज

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ