Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हृदय वीणा

 

01.
रुठी करुणा
बजती नहीं अब
हृदय वीणा ।
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02.
चित्र उभरे
गाँव के तालाब में
बचपन के ।
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03.
घना अंधेरा
दीप जलता रहा
मन अकेला ।
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04.
फूटें क्यों नहीं
आँसू के बुलबुले
दर्द जगाए ।
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05.
मरु जीवन
मरीचिका आशा में
भटके मन ।
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06.
चाँद भी कहाँ
बादलों की ओट में
छिपता भला ।
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07.
निष्ठुर खेल
हृदय से खेलती
मधुर व्यथा ।
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08.
अतृप्त मन
पल में तोड़ देते
सारे बंधन ।
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09.
रोम-रोम में
रम जाओ तो जानूँ
हो तुम राम ।
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- प्रदीप कुमार दाश "दीपक"

 

 

 

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