Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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किस्सों के दौर

 

-प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
01.
फटते मेघ
उगल रही झाग
गुस्से में नदी ।
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02.
सावन आये
अब मन के किस्से
हो गये हरे ।
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03.
गाता सावन
हो रही बरसात
झूलों की याद ।
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04.
किस्सों के दौर
आती रहती यादें
अब सुनाने ।
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05.
पीड़ा बताने
झाग उगल रही
व्यथा की नदी ।
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06.
कहाँ बरसे
गरजना जानते
सिंधु व मेघ ।
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07.
बूढ़ा सूरज
पहाड़ को चढ़ते
थक सा चला ।
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