Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मृग सा मन

 

 

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प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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मृग सा मन
01.
हौसला रखें
पथरीले शहर
फूल खिलाएँ ।
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02.
दिल के शीशे
कोई पराये नहीं
तोड़े अपने ।
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03 .
रात अंधेरी
तेल को तरसते
दीया औ बाती
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04.
बोये सपने
बंजर हृदय में
उगेंगे कैसे ?
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05.
स्वयं के उर
घुसेड़ता खंजर
स्वयं मानव ।
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06 .
खुशी लहरें
हृदय समुद्र में
मिले न कूल ।
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07.
हाइकु दीप
नई आशा संजोये
है प्रज्वलित ।
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08.
भटक रहा
वासना के वन में
मृग सा मन ।
09.
खिंचोगे जब
मानवता की डोरी
टूटेगी तब ।
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10.
राधा बुलाने
बजा रहे बाँसुरी
झूठे किशन ।
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11.
वृक्ष चंदन
लिपटा है उसमें
लुब्ध भुजंग ।
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12.
मध्य समुद्र
लड़ रहा इंसान
संग तुफान ।
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13.
रावण है तू
है राम जो बनना
खुद को मार ।
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14.
जाति अनेक
कैसे जानते हम
खून जो एक ।
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15.
छोड़ो देखने
जो सच नहीं होते
वे हैं सपने ।
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16.
उर्वर उर
उगाने में माहिर
प्रेम अंकुर ।
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17.
देतीं संबल
बीज उगाने हेतु
बरखा बूंदें ।
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18.
काँटे तो नहीं
चूभने लगे अब
कोमल फूल ।
19.
रिश्वत दौर
न्याय दरबार में
पैसे का जोर ।
20.
बेरोजगारी
जग को मार देगा
एक शिकारी ।
21.
उमड़े आँसू
हो गये बदरंग
गमों के चिह्न ।
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22.
आपसी फूट
ईमान को अपनी
लेती है लूट ।
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