01.
अंधे थे जन
बेचने गया वहाँ
मैंने दर्पण ।
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02.
जीना न जीना
जो मर कर जीए
जीवन जीना ।
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03.
जड़ ठहरा
मानवता से दूर
मानव रहा ।
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04.
कभी भी व्यर्थ
मत करना कोई
समय नष्ट ।
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05.
जीवन पग
भूमिका सँवारने
मिले न शब्द ।
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06.
नेह बयार
बदलना चाहता
छल संसार ।
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07.
काँच सा मन
ह.ह. तोड़ ही दिया
धूप दर्पण ।
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08.
प्यार थे बोये
उग गये क्यों पौधे
नफरतों के ।
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09.
प्यासा है मन
पी रहा ओस वह
कर जतन ।
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10.
गर्मी और लू
चिलकती धूप में
उठती हूक ।
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11.
मानव मन
अरी.पावस ऋतु !
उमड़ जा तू ।
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12.
कहता दीप
आनंद है अमृत
वेदना विष ।
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13.
प्रीति की डोर
बांध लेती मन को
करती जोर ।
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14.
हितैषी रवि
धरा को बाँच चले
अपनी लाली ।
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15.
संवेदनाएँ
बादल बन गयीं
चलीं रुठने ।
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-प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
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