कभी किसी रोज,
ऐसा भी होगा,
ये यकीं आता है|
कि इक दूजे का हाथ थामे,
हम बहुत दूर चलते है|
रात की सुनसान स्याही मे,
चाँद के दिए जलते है|
कि मेरी बाहों के घेरे में,
तुम काँधे पर सर रखती हो,
ओर मैं जन्नत मे जीने का,
मासूम, मदहोश गुमान करता हूँ|
की मेरी नज़र मे अक्सर ही,
ये मासूम से ख्वाब पलते है |
रात की सुनसान स्याही मे,
चाँद के दिए जलते है|
कि मैं उस यकीं मे जीता हूँ,
जहा तुम मेरे पास हो,
तल्ख़ हक़ीकत से परे नहीं,
मगर इक उम्मीद हो, इक आस हो|
कि मैने देखा है अक्सर,
एहसास रंग बदलते है|
रात की सुनसान स्याही मे,
चाँद के दिए जलते है|
प्रदीप सिंह चम्याल 'चातक
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