ओ मांझी चल दूर कहीं,
दूर कहीं इस दो मन से,
भरमाता सा डोल रहा हैं,
ये बैरी सा जीवन में |
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डोर जतन कुछ काम ना आये,
कहा बंधा हैं किस हद में,
बन जोगी ना रमा कभी,
मंदिर मस्जिद ना मठ में |
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पर जोगी जोग लगा बैठा,
जो दो नैनन के जोड़ से,
सौ उमर लगे सुलझाने में,
जुड़े सौ बंधन तोड़ के |
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भेद खुलावे,नाच नचावे,
खेल दिखावे जीवन में,
भरमाता सा डोल रहा हैं,
ये बैरी सा जीवन में
प्रदीप सिंह चम्याल 'चातक
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