बेवफ़ाई करनी ही थी तुम्हें तो,
बफ़ाई का ढोंग रचा ही क्यों था;
आशियाना को जलाना ही था तो,
मिलकर साथ बनाया ही क्यों था।
अरमानों के सुमन को कुचलना था तुम्हें,
तो ख्बाबों का चमन बनाया ही क्यों था;
छोडकर साथ जाना ही था एक दिन,
तो संग संग रहना सिखाया क्यों था।
तन्हा ही रखना था गर हमें तो,
तन्हाई को दूर भगाया क्यों था;
मधुशाला को मरघट बनाना ही था,
तो मधुपान की आदत लगाया क्यों था।
सफर को अधर में लटकाना ही था तो,
अपना हमसफर बना ही क्यों था;
नजर चुराकर जीना ही था तो,
जिग़र में घर बनाया ही क्यों था।
बदनामी का गर था फ़िकर तुम्हें इतना,
तो फूलों का गुलिस्ताँ बढाया ही क्यों था;
दुनियाँ से डरकर जाना ही था तो,
मुझे यहाँ "निर्भीक" बनाया ही क्यों था।
प्रकाश यादव "निर्भीक"
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