मैंने जीवन को आहुति दे
रिश्तों को पहचाना ।
भोग विलासी इस दुनिया में
भर आँखों में स्वार्थ लिये
हमको वो मिल जाते हैं
नागों वाला ज़हर पिये
राहों में अक्सर मिल आये
छल से छलने वाले छलिया
कुछ मुस्काकर,आँख मिलाकर
रिश्ता हमसे जोड़ लिया
दोहन करके नित-नित मेरा
मुझ पर ही एहसान जड़े
और सहारा लेकर मेरा
मुझ पर ही वो तने खड़े
यह झूठी दुनिया है मैंने माना
मैंने जीवन को आहुति दे
रिश्तों को पहचाना ।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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