अब अरे साँपो सुनो चुप ,जीभ कटनी चाहिए।
हो अगर जीवित कहीं ,तलवार उठनी चाहिए।
मैं न कहता तुम बुरे औ कह न सकता मैं भला
देश द्रोही को मग़र फिर आग मिलनी चाहिए।
अब शहर में जा बता दो उठ रहे हैं ज़लज़ले
ताक पर इज्जत हमारी वो न बिकनी चाहिए।
क्यों हमारे ही घरो में सर पे चढ़ वो नाचते
आँख खोलो कायरों औकात दिखनी चाहिए।
बाप के आगे सुनो की छोकरे जब बोलते !!
बस तभी बातें कि सारी यूँ न टलनी चाहिए।
जो इमारत खुद कहे मैं ही हूँ कातिल देश की
देखते वीरों कि क्या ? बुनियाद हिलनी चाहिए।
चाटुकारों को सियासी बात करनी है अभी
माँ बिके बिकती रहे बस जेब भरनी चाहिए।
क्या कहूँ "तेजस" अभी धिक्कार है उन पर मुझे
बस खड़े बाज़ार कर गोली कि चलनी चाहिए।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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