शर्म की सारी सीमायें तोड़ दो।
रात्रि अंतिम प्रहर हठ छोड़ दो।
तुम व्यर्थ लाज मे बंधी हुई हो,
मिल हवाओ का रुख मोड़ दो।
रे प्रिये रात्रि अंतिम प्रहर आया।
तुम पलभर के मधुर मिलन को
युगों-युगों मे परिवर्तित कर दो।
रसीले अधरों को समर्पित कर,
तुम बंजर को उपजाऊ कर दो।
रे प्रिये रात्रि अंतिम प्रहर आया।
होंठो पर मुस्कान तनिक लाकर
शर्मीली पलके झुकाकर कह दो।
तुम सिर्फ मेरी हो इतना बताकर,
फिर मुझे इक नई जवानी दे दो।
रे प्रिये रात्रि अंतिम प्रहर आया।
उस मृग की मृगतृष्णा मिटाकर,
प्यारी उस को गतिहीन कर दो।
रे तड़प रहा हूँ मैं वर्षों से पगली,
इस तड़पन का इलाज कर दो।
रे प्रिये रात्रि अंतिम प्रहर आया।
हँसकर मसला विश्वासों को मैंने
रे पलती कुंठित काया मिटा दो।
हाँ अब समर्पण से अपने सुमुखि,
मरती रात्रि को जीवित कर दो।
रे प्रिये रात्रि अंतिम प्रहर आया।
---प्रणव मिश्र'तेजस'
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