Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बदलाव

 

 

है कि यादें वो कहानी अब कि मिटती जा रही
लोग वैसे ही मग़र ,नीयत बदलती जा रही

 

अब शहर की बस्तियों में लाश है चलते दिखे
झूठ में जीकर सुनो हस्ती सिमटती जा रही

 

रे यहाँ रिश्ते बिके है नुक्कड़ों के ढेर पे
सरसराती जिंदगी में साँस रुकती जा रही

 

आप आपा खो रहे हैं इन्द्रियों के जाल में
वासनाओं की जड़े फिर से पनपती जा रही

 

अब न मिलती है मुझे पल्लू में लिपटी माँ मिरी
इस दिखावे के समय में वो भि छिपती जा रही

 

लोग पूछे हैं शहर के जात बतलाओ ज़रा
जात पर ही अब हमारी बात गिरती जा रही

 

देख करके डर रहा हूँ इस जहां की उलझने
रेत मुट्ठी से मग़र फिर भी फिसलती जा रही

 

धूल खाती अब पड़ी है लेखनी कवि की सुनो
चाटुकारों से हि "तेजस" वो भि लुटती जा रही

 

 

प्रणव मिश्र'तेजस'

 

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