Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना

 

 

देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना,
वर्षों बाद मिली हो मुझको,कुछ पल तो संग बिताना।
याद में तेरी ही तो हमने चाँद को रोज निहारा,
याद में जब-तब पूँछ लिया करता था मैंने पता तुम्हारा।

 

देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना।

 

कई चौमासे बीते औ सावन भादौ आकर चले गये,
जब बसंत भी आये वो भी आँसू में हमारे भीग गये।
तुम कहती खत नही लिखते थे आओ तुमको दिखलाऊँ,
कोरे कोरे कागज मेरे खून की होली याद में खेल गये।

 

देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना।

 

क्यों बार बार घड़ी तकती हो इस घड़ी का इन्तेजार था,
आओ तुम्हे सोलह शृंगार कराउ अधूरा मेरा प्यार था।
आज कोई बहाना मत करना जाना चाहो चली जाओ,
पर बात बता दूँ तुमको,तुम पर ही मेरा पूरा अधिकार था।

 

देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना।

 

आओ अपनी नादानी वाली उन यादों में हम खो जायें,
उस मंदिर की चौखट पर चलकर फिर शीश नवां आयें।
उन मंदिर के धागों पर तेरे नाम की ही तो गाँठ लगी है,
उस मंदिर की गाँठो को स्वतंत्र कर हम तुम एक हो जायें।

देखो मुझको डर लगता अब तुम दूर न जाना।

 

 

प्रणव मिश्र'तेजस'

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