Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

कल रात बहुत मैं रोया

 

 

कवि की मादकता को श्राप मिला
साकी उसे अब और न पिला
विहल छाती ,दारुण रस में खोया
कल रात बहुत मैं रोया।

 

लगा हुआ है आस पास इक मेला
मित्रों संग होकर भी हूँ अकेला
साथी देख वहाँ राक्षस कोई है सोया
कल रात बहुत मैं रोया।

 

वो तो जाने कब की बँधन तोड़ गई
दुखों की बेसुध सरिता मोड़ गई
प्रेम समझ उसके अवशेषों को ढोया
कल रात बहुत मैं रोया।

 

मेरा जीवन अब तक एकाकी बीता था
सब कविता में लिख जी लेता था
पर इसमें भी विष बीज किसी ने बोया
कल रात बहुत मैं रोया।

 

 


©प्रणव मिश्र'तेजस'

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ