छगनपुरी की सबसे सहज बस्ती में जोकि नगरपालिका में न होने के कारण अभी आधुनिकीकरण से कोसों परे थी....ग्राम-पंचायत के अंतर्गत आती थी । उसका अस्तित्व तो शहरी-ग्रामीण सा प्रतीत होता था ;शहरी इसलिए क्योंकि वह छगनपुरी शहर की बस्ती के रूप में परिणित थी परन्तु एक ठेठ गॉंव से कम न थी।सड़के इतनी सूघर थी कि जिनपर विश्व के हर एक देश का मानचित्र आप को मिल सकता था,टंकी तो बिलकुल न के बराबर लोगों के घरों में थी जिनके घर ऊपरी पैसा आता था शेष सभी हैण्डपम्प के उपभोगी थे।गाय-भैस के गोबर की सुगन्ध,हलवाई के हलुये और मामा समोसे वाले के समोसे की सुगंध वहाँ लगभग आया ही करती थी।प्रकृति की गोद में अब भी ये क्षेत्र खेल रहा था शहर के निकटवर्ती होने के बाद भी।पोखर -तालाब भी आप को आसानी से मिल सकते।ऐसी परित्यक्त जगह थी कवि के बैठक का केंद्र।जहाँ कोई स्वयं को अच्छा समझने वाला जाना नही चाहता वहाँ कवि अपनी पोथी ले के घण्टो कुछ घोंचा करते थे।एक पुराने सरकारी जर्जर भवन में लगा करती थी हर वीरवार को बैठक जहाँ समाज के सताये कवि अपनी भड़ास कविता में उतार एक दूसरे को सुनाते थे और मामा समोसे वाले के किफायती 1 रूपया प्रति समोसे और 3 रुपये की चाय का आनन्द ले घर जाते थे।सारा चाय-पानी का खर्चा राष्ट्रिय सम्मान से सम्मानित कवि और लेखक आदरणीय बंशी जी छगनपुरिया उठाते थे।यहाँ सांय चार बजे से कविता से शब्द बाण छोड़ कर कवि दिन के दिन ही जाने कितनी पार्टियो और नेताओ को धूल चटा देते थे और नितिपाठ सिखाने में भी पीछे न हटते थे।बंशी जी कुछ अस्वस्थ हुए और उसी कारण बैठक लगभग 1मॉस के लिए स्थगित हो गई..1 मास उपरांत भी उनकी सेहत में कोई सुधार न हुआ और ऐसा लगा मानो अब चाय-पानी का खर्चा उठाने वाला कलयुगी दानी इहलोक को छोड़ यमलोक पहुँच जायेगा।बड़ी चिंता के बाद बैठक फिर से बुलाई गई और उस दिन बंशी जी की दीर्घायु की प्रार्थना होनी थी।अभी शमशानी कवि जिन्हें जल्द ही श्मशान में लेटना था बंशी जी के निरोगी होने की प्रार्थना करने लगे.....।
अचानक बंशी जी के बेटे का फोन बंशी जी के परम् मित्र और वीर रस के धुरन्धर कवि तेजनारायण के पास आया कि बंशी जी को यमराज अपने घर ले गया।खबर सुनते ही जीरो वाट सा जलता बल्ब शोक में और डिम हो गया,चूँ चूँ की आवाज करते पंखो को तो लकवा मार गया और बन्द से होने लगे....ऐसा लगा मानो सभी कवियों की छाती पर भोले बाबा का साँप लोट गया हो।हर तरफ की शांति और सन्नाटा मानो गूँज कर पूँछ रहा हो कि,अब चाय कौन पिलायेगा और हमारे समोसे..?" सब एक दूसरे का मुँह देख रहे और कौन क्या बोले पता नही...तभी हास्य कवि आगे आये और बोले,"हमारे समोसे और चाय की बत्ती गुल हो गई,मेरा मतलब बंशी जी का नर्कवास हो गया है।हम सब कवियों को चलकर उनके घर वालों को अपने सामर्थ्य से ढाँढस का दान देना चाहिए।"सभी को मत अच्छा लगा और सभी कछुए चाल में चल दिए बंशी जी की पुश्तों की हवेली में।
बंशी जी के 3 बेटे और 1 बेटी थी।बड़ा बेटा अमरीका में अपनी विलायतन अर्धांगिनी के साथ रहता था जो की एक सॉफ्टवेयर अभियांत्रिक था उस से छोटा नगर-पालिका में बाबू और सबसे छोटे वाले ने अभी-अभी परास्नातक हिंदी की परीक्षा दी और जो कि हूबहू बंशी जी के नक्शे कदमों पर चल रहा था, वह इक कुशल रचनाकार भी था।बेटी तो समय से पहले ही एक अध्यापक को ब्याह दी गई थी जो अपने मायके से 55 किलोमीटर की दूरी पर रहती थी।सभी सूचना पाते ही आने को आतुर होने लगे थे कि अंतिम बार ही बंशी जी को देख लिया जाये वरना समाज में लोग कहेंगे की फलां-फलां देखने नही आये उनके मारने पर भी ।इसी बीच इन शमशानी कवियों की टोली पहुँचती है गाँव के बाहर बनी एक पुरानी पुश्तैनी हवेली की ओर ।बंशी जी परिवार की कलह के चलते खुद और पत्नी के साथ गाँव के बाहर वाली हवेली में अकेले रहा करते थे और उनके निकम्मे बच्चे अपने-अपने दबडों में अपने परिवार के साथ ।बस सबसे छोटा वाला लड़का जब हॉस्टल से छूटता था तब सीधे बंशी जी के पास आता था और छोटे कद के प्यारे बंशी जी अपने लम्बे कद के सिरकी की तरह दुबले लड़के के साथ बैठ घण्टो काव्य चर्चायें किया करते थे।
कवियों के जमावड़े को देख बंशी जी की पत्नी और व्याकुल हो उठी और जोर-जोर से विलाप करने लगी क्यों कि वे कवि ही थे जो बंशी जी को सम्भल प्रदान किया करते थे भले उसका उद्देश्य जो भी रहा हो।सभी कवियों ने भाभी जी को चुप करने की कोशिश की पर उनका अश्रु बाँध आज टूट चुका था और नदी गंगा जमुना हो गई थी।भाभी जी बोली की अमरीका वाला बेटा इतना भौतिकता में मस्त है की उसने अपने पिता के अंतिम दर्शन दूरभाष और संगड़क के द्वारा ही कर लिए और न आने के लिए क्षमा माँग ली मनो बाप साल में 70 बार मरता हो और इस भाँति बोला की जैसे उसका भोज खाने का न्यौता हो और समयाभाव के कारण वह आ न पाया हो।उस से छोटे में हालाँकि कलयुगी गुण थे पर अपना आंशिक कर्तव्य पत्नी से डरता डरता निभाता रहा।गाज तो गिरी सबसे छोटे बेटे और भाभी जी पर।बेटा बहुत रोया और असल पितृ-मृत्यु-दुःख योगेन्द्र को ही था,वह टूट सा गया क्यों की उसके सर के एक अभिभावक ,एक मित्र और पिता का साया जो उठ गया।भाभी जी की भी अब दुर्दशा होने वाली थी क्यों की मंझले बेटे की बहू साक्षात् चण्डी स्वरुप थी जो की उन्हें मृत्यु से पहले ही मार डालती।इसी बीच बेटी दौड़ी-दौड़ी आई और पिता के मृत शरीर पर सर रख कर रोने लगी क्यों की उसके पिता सर्वाधिक उसी को प्रेम करते थे और उसे छबीली नाम से पुकारते थे। छबीली सबसे छोटे भाई से कुछ बड़ी थी ,शायद साल दो साल।इधर प्रतिद्वंदी कवि भी दुःख से त्रस्त थे क्यों की बंशी जी ने किसी को भी शब्दों में करेला और नीम नही बेंचा था।वे सब भी अपने अन्तस् में बंशी जी के प्रति रखे दुर्भाव से स्वयं को ही नजरो में गिरे-गिरे नज़र आ रहे थे।
रिवाज़ बदले और स्वयं को बड़े आदमी दिखाने के चलते मंझले बेटे ने चिता को दाह करने के लिए शहरी श्मशान का चुनाव किया और उन्हें प्रकृति की गोद में सर रख के सोने के बजाय संगमरमरी जमीन पर फूँकना अधिक उचित समझा।बंशी जी को उनके बुजुर्ग कवि मित्र कन्धा देकर चल दिए और मानो बंशी जी को अब प्रकृति और जीव जंतु अंतिम विदाई देने को आतुर है,सभी चाहते की उनके देवपुरुष को वे अंतिम बार देख ले इसलिए उस शोक को प्रकट करने के लिए वृक्षों ने अपनी पतझड़ के पहले ही सारी पत्तियाँ गिरा दी...गाँव की मिट्टी भी जिसे धूल कहते अपनी सहेली हवा का हाँथ पकड़ कर बंशी जी के चरण छूने के लिए बार बार दौड़ती है,,उधर मेघ भी अत्यंत विहल को कर गर्जना कर के तेजी से रोता है।हवा तो मानो मृत्यु सुनकर पगला गई हो कभी इधर थपेड़ मरती तो कभी उधर।कुत्ता-कुत्तिया-गाय-भैस-मोर-पड़िया-पड़वा और कौवा-कोयल आँसू बहा बहा कर रोने लगे.....जाने कितने घण्टो कवि जी बैठ कर उनके रस का रसास्वादन किया करते थे,उनकी सुंदरता को उपमायें देखकर उन्ही को सुनाया करते थे।बिना उनसे बात किये न वो चैन से रहते न ही ये सब।आज तो मानो इनसे किसी ने इनके पिता को छीन लिया हो।जब उनको लेकर चले है तब सारा वातावरण शोकाकुल था,सभी की आँखे नम थी क्यों की एक युगपुरुष अब उनसे विदा ले रहा था.....कुत्ते और कुतिया उन्हें छोड़ने वहाँ तक गए जहाँ तक वो जा सकते थे और शहर लाकर बंशी जी को दाह अग्नि दी गई...
उनकी चिता की आग ठण्डी नही हुई थी कि मंझली बहू बोली हिस्सा चाहिए जो बंशी जी बचाये बक्सों में धरे है और किसी को छूने नही देते थे।एक तरफ चिता को अग्नि मिली तो दूसरी तरफ उनके बक्सों के ताले टूटे जिसमे मिला क्या??????अनगिनत प्रणाम पत्र,मैडल ,कुछ एक हजार इनाम के रुपये और राष्ट्रिय सम्मान के चित्र वहीं दूसरे बक्सों में मिली सैकड़ों कविताओ की किताबिया और एक पत्नी के लिए लिखे शृंगार गीतों की अप्रकाशित गीत मालिका।बहू ये सब देख आग बबूला हो बंशी जी को गालियाँ देती घर चली गई साथ में पीछे पीछे पालतू पति।घर में बचे कवि जो की अपने घर को निकल रहे थे इस अफ़सोस के साथ की अब बैठक स्थगित जीवन भर के लिए और योगेन्द्र-छबीली।योगेन्द्र कमाता नही था इसलिए बेटी हठ कर के भाभी जी को अपने साथ ले गई,और बेटी ने बेटे का धर्म निभाया वही योगेन्द्र अब दफ्तरों के चक्कर लगाने लगा नौकरी के शीलशिले में कविता को भूल और भागने लगा भौतिकता की अंधी दौड़ में ताकि अपनी माँ को अंतिम समय वह सुख दे सके।
बची सिर्फ बंशी जी की अप्रकाशित कविताये और स्वयं का इतिहास बताती पुश्तैनी हवेली।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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