खिल उठी हैं अब हृदय की
अधखिली कलियाँ सुहानी
देख करके हृद हमारा
तुमने चद्दर क्यों है तानी
उर्वशी सी इन घटाओं
को सुनो तुम अब हटाओ
देख हमको तुम शरम से
यूँ न नजरें अब झुकाओ
रुक अरे पगली सुनो
अब तल्ख बातों को हटाओ
इस हृदय में प्यास बाकी
अब तुम्हीं इस को बुझाओ।
है शपथ तुमको सुनो
छाये हुये उन्माद की
रे मिला मुझको स्वयं में
भूल बाते अपराध की
रिस रही लाली अभी
स्वाद इसका तू चखा
शायद इसी की बात हमसे
करता है पागल सखा
कह उठे है वृन्द सारे
नाम ले करके तुम्हारा
पाहुन आँखे तब झुकेंगी
शोर होगा जब हमारा
चाँद ज्यों चाँदनी बिन
है अधूरा है अधूरा
बिन मिलन के रे प्रिये
प्रेम कब होता है पूरा?
इसलिए सुन रे प्रिये
द्वै को एकाकार कर
अब हमारे ही हृदय में
खुद का तू विस्तार कर
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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