दूर कहीं पनघट पर
छाया धुँआ धुआँ है
मुस्कुराई क्यों गोरी,
कुछ तो कहीं हुआ है।
वह धानी चुन्नी डालकर
जब चलती है झूम कर
पड़ती सूरज किरणे
मानो निकली चूम कर
अरे विहंगम दृश्य बना है
कुछ तो कहीं हुआ है।
उसकी पायल की धुन
सुनकर होता मेरा दिन
क़दमों की आहट से
सुख चैन जाता है छिन।
फला महुआ बड़ा घना है,
कुछ तो कहीं हुआ है।
वह जाती डगर किनारे की
खेतों से होकर द्वारे की
पीछे सखियों की टोली;
ज्यों बारात निकली तारे की।
आगे एक खड़ा कुतवा है
कुछ तो कहीं हुआ है।
चला एक भौरा शरमाया
उसने गोरी को रिझाया
चूम रसीले अधरों को
उसने अपने नाम कराया।
मन भी व्यकुल हो उठा है,
कुछ तो कहीं हुआ है।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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