मनुष्य का मूल उद्देश्य है उस परम सत्ता को प्राप्त करना जिसका वो हिस्सा है,जैसे सूर्य टूटा तो पृथ्वी समेत आठ ग्रहों का प्राकट्य हुआ उसी भांति उस परम सत्ता के हम टूटे हुए हिस्सा है,जो विभिन्न रूपों में इतर वितर वितरित हैं।अब जैसे कोई वस्तु खरीदी जाती है और कुछ समय पश्च्यात उस पर तह पर तह परत बनती जाती और मूल वस्तु का रंग रूप और स्थायित्व विलुप्त हो जाता उसी भांति हम अपने मूल से भिन्न होते चले गए...और भौतिकता हो ही अपनी संपत्ति मान बैठे और भौतिकता के जोड़-तोड़ में जीवन व्यय करते रहे।बात करता हूँ शरीर की,मूल की।जैसे हम झाड़-फूँककर वस्तु साफ़ कर सकते उसी भांति स्वयं का भी मूल रूप प्राप्त कर सकते जो की वस्तुतः प्राप्य है।परम सत्ता में लय ही हमारा मूल उद्देश्य है और जीवन मरण चक्र को जीतना ही हमारी सबसे बड़ी विजय।
शरीर को भी झाड़ना और फूँकना अवश्य है।झांड़ना-फूँकना वायु से सम्बंधित ,फूँकने के लिए प्राण की जरूरत;प्राण है हमारी वायु।शरीर में यदि प्राणवायु की कमी हो तो व्यक्ति बीमार पड़ता और यदि समाप्ति हो तो जय सीता-राम ।और इन्ही के नियंत्रण से आप स्वयं बिना किसी दावा के खुद को स्वस्थ्य कर सकते और अन्तस् में झाँक कर यह भी पता लगा सकते की वस्तुतः हम किस जगह की प्राण वायु की कमी से बीमार है।प्राण का पता लगाने के लिए जरूरत पड़ती है,प्राण पर देख रेख की और यह सिर्फ होता है प्राणायाम से।बांये नथुने से साँस खींचना और दायें से छोड़ना दिन में तीन चार बार ही नाड़ी शोधन का कारक है।और इसी प्रकार साँस बायें से खींच कर रोकना और लय बध तरीके से छोंड़ना प्राणायाम है।इसी को रेचक-कुम्भक आदि विधियों से जानते है।प्राणायाम के नियम बध प्रयोग से आप प्राण पर नियंत्रण कर के मन पर अपना स्वामित्व स्थापित कर सकते।मन इन्द्रियों का दास है और मन का राजा बनना यानि इन्द्रियों माँ राजा।पीछे मेरुदंड के मूल से मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार चक्र है जिनकी जागृति इड़ा ,पिंगला और सुषुम्ना नदियों के भेदन से होती है । इड़ा सम्भवता मूलाधार चक्र में है और पिंगला मेडुला में स्थित है और सुषुम्ना मध्य में स्थित जिसे कुण्डलिनी भेदती।अब प्रश्न कुण्डलिनी क्या?
कुण्डलिनी साँप की भांति सोई हुई नाड़ियाँ है जो मूलाधार में है और वहां से तरंग रूप में चल कर उर्ध्व गति कर के सुषुम्ना को भेदती सहस्रार तक जाती और मध्य में वे
मूलाधार(मूल चक्र)
स्वाधिष्ठान
मणिपूर
अनाहत
विशुद्ध
आज्ञा और
सहस्रार
को भेदती ।
कुण्डलिनी जागरण का अर्थ है की उस मूल ब्रह्म की प्राप्ति।और निराकार में लय हो जाना।जिस व्यक्ति की कुण्डललिनी जाग्रत होती वह मन के ज्ञान से संसार के समस्त ज्ञान को भली भांति जान लेता भले वो गूढ़ से गूढ़ हो ।वह संसार के परदे ऐसे खोलता मानो कोई बच्चा क्रीड़ा कर रहा और खेल खेल में वो अनन्त ज्ञान को शब्दों में कह देता उदाहरण विवेकानन्द है।आप को किसी स्वाद की जरूरत नही और न ही किसी सुंदरता की।आप स्वयं में भाव शून्य और विचार शून्य हो परमानन्द की प्राप्ति कर लेते।काष्ठ की लकड़ी की भाँति आप में कोई विचार नही आते आप सब में एकत्व दर्शन करते भले कोई अपशब्द कहे या कोई प्रशंसा के पुल बाँध दे।ईश्वर तो साथ साथ ही भोजन करते।इस अज्ञानी दुनिया को आप स्वप्न समझ भूल उस अलौकिक दुनिया के नित्य दर्शन करेंगे जिसकी कल्पना मात्र भी असम्भव और उन्ही को व्यक्ति चमत्कार समझता क्यों की ये बातें उसकी सोंच से परे।
मैंने स्वप्न की बात की,स्वप्न भी उसी कुण्डलिनी से निकली तरंगो का मानस पटल पर बना चित्र है जो सुसुप्त अवस्था में हम अनुभव करते है।
अब उस महान अनुभव की प्राप्ति की चर्चा कर रहे है तो उसके लिए अवश्य की हमे हमे अपने शरीर को बलशाली बनाना होगा उस शक्ति को स्वयं में समाहित करने के लिए।आप सोंचिये जो 40 हजार विद्युत लाइन है उसको आप स्पर्श करे तो क्या होगा??आप का कोई अंश मिल जाये तो ईश्वरीय अनुकम्पा है और इस विद्युत का जनक को ईश्वर तो उसमे कितना तेज होगा और उसी तेज को आप स्वयं में अवस्थित करने जा रहे तो सोंचिये आप का शरीर उस तेज को ग्रहण करने में सक्षम होना चाहिए ।तेज आये कहाँ से?विज्ञान का नियम याद करे,"ऊर्जा न नष्ट हो सकती न की सृजित,केवल रूपांतरण होता"।हमारे शरीर में ऊर्जा कहाँ?जो खाते है वो ऊर्जा बनती पर वो उतनी उपयुक्त नही की आप के तेज का वरण करे।कभी याद करिये किसी के मुँह से तेज छलकता दिखता,वो तेज ओज का तेज है जो की योगी द्वारा बचाया जाता स्वयं को उस काबिल बनाने में की वो कुण्डलिनी की जाग्रत अवस्था और उस से उतपन्न शक्ति को ग्रहण करे।ओज सिर्फ बने वीर्य के रक्षण से होता।कामजित पुरुष या स्त्री उस तत्व को कमर के नीचे से मस्तिष्क तक पहुँचा देता और स्वयं ओज का स्वामी जिस से वह अनन्त शक्तियों का स्वामी भी बनता,इसे ब्रह्मचर्य पालन की क्रिया भी कहते।और ब्रह्मचारी स्वयं ईश्वर की अनुभूति करने लगता।काम इक्षा को दबा कर योगी ओज को संरक्षित करते।और कुण्डलिनी के तेज को स्वयं में समाहित करने में समर्थ है।जरुरी नही की आप बचपन से ही ब्रह्मचारी हो ,जब आप उसका पालन करे तब से आप स्वयं में ओज ,शक्ति ,तेज और स्फूर्ति का अनुभव करते है।
क्रमशः..............
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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