मैं उन्मुक्त गगन का पंछी हूँ जी,
रे कटान में कटी मिट्टी हूँ जी।
लौह शृंखला या स्वर्ण शृंखला,
मैं बन्धन न कभी बंधता हूँ जी।
इस मिट्टी को क्यों अपना जानू?
जाने कितनी त्यज आया हूँ जी।
घाट घाट का पानी पीकर मैं तो,
दुनिया इक ठेस समझता हूँ जी।
मैं पथिक यायावर,क्यों किसको अपना मानूँ मैं???
खाने का कोई ठौर ठिकाना न है
बिछाने को मखमली चादर न है
तिरछी रेखा क्या कोई मत्थे मेरे
रे सिक्कों वाली पूँजी झोले न है
उफ़ चंद ढकोसले इस दुनिया के,
इनकी तो रीति ही निराली है जी।
देखो अपना कहकर मुँह लगाती,
फिर पतली गली से निकली है जी।
मैं पथिक यायावर,क्यों किसको अपना मानूँ मैं???
जन्म दिया उसको है देखा क्या?
अपने प्रकाश को है देखा क्या?
लोग अक्सर आँखों से छलते हैं,
छले हुए को छलते देखा क्या?
परस्परता अक्सर बराबरी में है
इस दुनिया के मैं लायक न हूँ।
यहाँ रिश्तों की बोली लगती है,
मैं तो कई बंधन तोड़ आया हूँ।
मैं पथिक यायावर,क्यों किसको अपना मानूँ मैं???
अज्ञात जगह से आये हो तुम।
अज्ञात जगह ही जाओगे तुम।
सरसों -लाही वाली जिंदगी में,
कितनी जेबें लगवाओगे तुम।
कफ़न में जेब नही होती मियां,
टांगे फैला के जाओगे तुम।
जिस धरती के बोझ बने हो ,
उस धरती दब जाओगे तुम।
मैं पथिक यायावर,क्यों किसको अपना मानूँ मैं???
----प्रणव मिश्र'तेजस'
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