मजहबों के नाम पर ही देश जब बटने लगा।
तब सियासत का वो सिक्का दौड़ के चलने लगा।
मौत का मंजर हैं फैला क्या शहर में आ गया?
या कि दुश्मन अब हमीं से दोसती करने लगा?
दफ़्न है हर मोड़ पर रे लाश ये किसकी कहो?
घर मेरा श्मशान में ही बोल क्या बनने लगा।
बस जलालत की हदों में है सुखी वो आदमी
जो औरों के खून से इतिहास को लिखने लगा।
यार की नजरों में चढ़ने के हि खातिर अब सुनो
राजनीती का वो चबुका पीठ पर दिखने लगा।
क्या कहूँ औरों को 'तेजस' साँस मेरी ही रुकी
रोटि कपड़ा औ मकां में खुश मैं होने लगा।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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