Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मन का मन से जो मिलन था

 

मन का मन से जो मिलन था।
यद्यपि प्रश्न बड़ा कठिन था।
मेरा प्रेम दिनकर बिंब बन,
जल में जाने को निमग्न था।

 

सूर्य बिंब जलमग्न हुए जो।
किरणे विपरीत चली जो।
तेरे मेरे प्रेम बिंब से प्रिये,
कोई नव किसलय फूटी जो।

 

तुम से ये बगिया शर्माती है।
पर तुम बिन ही मुरझाती है।
बिना भ्रमर कुमुद मिलन के,
कोई डाली नही सोहाती है।

 

समीप तुम जब आये थे,
कुछ बोल नही पाये थे।
केवल मूक बधिर होकर
इशारों में गीत बनाये थे।

 

अक्सर वो चाँद मुखड़ा छुपाते।
पर दृग जब भी थे मिल जाते।
हाँ ये तो मेरे तेरे नयनो का,
नवल संगम थे अक्सर करवाते।

 

हम चुप थे क्योंकि तुम चुप थे।
तुम चुप थे क्योंकि हम चुप थे।
बिना बोले ही हम तेरी बात,
चुटकियों में ही समझ जाते थे।

 

तुम त्रिविधि बयार सी जब चलती।
मन पीड़ा भव बाधा मेरी थी हरती।
हाँ यथार्थ में मिलन हो नही पाया,
पर स्वप्न में जिरह थी रोज चलती।

 

हम अक्सर उन राहों पर चलते।
तेरे पदचिन्ह हाँ चिन्हित करते।
कुछ पागल कहते कुछ दीवाना,
पर सखी हम तो थे तुम पर मरते।

 

कभी विहंग सा उड़ता था।
कभी पतंग सा गिरता था।
आरोह-अवरोह विरह की,
मैं नित्य तुम बिन सहता था।

 

बेपरवाही से तुझको चाहा।
टूट कर तुम मे मिलना चाहा।
पर न जाने क्यों तुमने,
देख कर अनदेखा करना चाहा।

 

आंसू मेरे अब सूखे थे।
राह दृग तेरी तकते थे।
एक बात प्रिये तुम बिन,
मेरे श्रृंगार गीत अधूरे थे।

 

 

 

प्रणव मिश्र'तेजस'

 

 

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