Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

मेरा प्रभु

 

मैं किसको शब्दों में ढाल रहा?
जिसका यह सब सुरताल रहा।
उस आदि अंत से कहीं परे जो,
जिसका यह सब बुना जाल रहा।
प्रलयकाल से अब तक रहकर,
कहीं दूर बैठा जो मुस्कुरा रहा।
मेरे शब्दों की गरिमा को देख जो,
मेरे भावों में शांत ढलता जा रहा।

 

वह प्रभु मेरा कितना भोला।

 

जिसके नेत्रों मे मेरे लिए सिर्फ प्रेम रहा।
पापियों का भी जो उद्धार करता रहा।
मुझ अज्ञानी पर वात्सल्यता उड़ेलकर,
जो सूर्य चन्द्र को ऊँगलियों पर नचा रहा।
जिसके होने की आभा से प्रतिदिन,
कालचक्र भी अविरोध गति करता रहा।
मुझ पगले की मासूम सी हठ पर,
काल गति को क्षण क्षण मे बदलता रहा।

 

वह प्रभु मेरा कितना भोला।

 

जाने कितने रत्न संजोये बैठा रहा।
समय समय पर मुझको देता रहा।
चिति परिवर्तन मे मैंने क्या क्या कहा?
वो मुझको देख यूँ ही मुस्कुराता रहा।
कितने गुस्से मे मै उससे लड़ कर,
हर बार जीत का जश्न मानता रहा।
वो ब्रह्माण्ड नायक मेरे संतोष से,
खुद की हार मे डमरू बजाता रहा।

 

वो प्रभु मेरा कितना भोला।

 

 

---प्रणव मिश्र'तेजस'

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ