वह दूर देखो कौन जा रहा
फक्कड़ता वरदान लिये
प्रतिपल भुई ठोकर मार रहा
अक्खड़ता का मान लिये
जीवन में जिसको मिली हैं
असफलतायें अगणित
सारे बँधन जिसके टूटे हैं
पाया है दुःख दुई गुणित
जिसके वसन उजले कुसिटे
पड़ी जिसमें अनेक सिलवटे
वेश पागल सा है बना रहा,
वह महामानव कौन जा रहा?
गीत क्षण क्षण गुनगुना रहा
रे अलबेले सलोने सुना रहा
वह शब्दों का लगता जादूगर
मन ही मन जो अनमना रहा
वो अपनी मस्ती में झूम रहा
बार बार लेखनी ही चूम रहा
लड़कर कविताओं से अपनी
वो दीवाना राहों पर घूम रहा
ये तो कोई लगता अलबेला
अभी हुआ साधू नया नवेला
इससे ही तो मैंने शब्द सिखे
इसकी रचना में दर्शन दिखे
इस को सारा विश्व है जनता
फक्कड़ स्वाभाव दाढ़ी बाबा
मेरा प्रिय "निराला" है जाता
---प्रणव मिश्र'तेजस'
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