निज उत्पत्ति का बड़ मान लिये।
छप्पन इंची सीने की तान लिये।
मैं निकला ऐंठ निकट उस बस्ती
जाने इतना क्यों अभिमान लिये?
वो बोधिया आकर ये क्या बोला!!
मेरे कानों में विष हलाहल घोला
कल की वो मेरी प्यारी सी बिटिया
क्या सिक्को की भेंट चढ़ी चुनिया?
क्या तू पागल या धतूरा खा आया?
सुबह पूरी बोतल ले गुर्दे को चढ़ाया
मुझे कानों पर विश्वास नही हो रहा
सच बोल तूने कितना झूठ मिलाया
कल ही तो उसे कबाड़ बीनते देखा
आँखों में रे सपनो का कारवां देखा
पूरी बात मुझे जल्दी बता बोधिया,
क्या सिक्को की भेंट चढ़ी चुनिया?
बोधिया---
साहब मैं तो आँखों की देखी कहता
शब्द नही मेरा झूठ चादर ओढ़ता।
चलो चलकर वहीँ खुद देखो चलके
अगर मैं आप को नशे में हूँ लगता।
साहब जिस्म के भूखे बाजार बिकी
नोटों की गड्डी में उसकी चीख दबी
अब जाने कितना दर्द सहेगी बिटिया
हाँ सिक्को की भेंट चढ़ी चुनिया।
मैंने जल्दी जल्दी राह कदम बढ़ाये।
वो दरिंदे चुनिया को रत्तीभर न भाये।
गाजर मूली की तरह दाम लगाकर,
घूरता ऐसा मानो जिस्म को खा जाये।
मैंने एक पलक से चुनिया को देखा
लगे हाँथ फिर उसके बाबा को देखा।
भाई,क्यों ये नौटंकी मचाये बोधिया?
क्यों सिक्को की भेंट चढ़ी चुनिया?
इसमें तो मंत्री जी शामिल लगते हैं।
कानून सिपाही भी लगता बिकते हैं।
रुपयों के आगे बोधिया सब झुके,
माँ बाप भी कंगाली के मारे लगते हैं।
गहरे शोक और आश्चर्य से भरकर
मैं उन दरिंदों से बोला हाँथ जोड़कर
तेरह साल की बिटिया को छोड़ दो
नही इसे जीवन में नर्क एह्साह दो
जितने पैसे तुम्हे चाहिए मुझसे ले लो
पर मेरी बिटियाचुनिया को जाने दो।
इस पर वो बोला रावण हँसी हँस कर
अब मैं दम लूँगा अपनी भूख मिटाकर
मुझे दूसरी नही मिलेगी ऐसी जवनिया
अब सिक्को की भेंट चढ़ गई चुनिया।
---प्रणव मिश्र'तेजस'
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