पिंजरबद्ध विहग को स्वतंत्रता की आस थी।
उड़ते नभचर को सपनों की तलास थी।
जिनके थे जीवन में बस सपने ही सबकुछ,
उनको किसी के अपनत्व की गहरी प्यास थी।
किस को मानूँ अपना मैं यहाँ,
स्व दाह का अधिकार दूँ।
सब को जाना ही है जब वहाँ,
चलो खुद को प्रतिकार दूँ।
जिंदगी की उहापोह में,
साँस हर एक भारी है।
स्वजनों की लड़ाई में,
हार बस अपनी ही है।
जो न लड़ा तो जीवन गया।
लड़ गया तो सबकुछ गया।
राख ढेर मुझको मिल गया।
मेरी जीत में मेरा सब गया।
प्रणव मिश्र'तेजस'
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