नही दे पाती डूबती किरण रौशनी।
अंधकार से आखिर हारती रौशनी।
शाम होते वक़्त ढलता है जब यहाँ,
अंधकार में कहीं छुपी सी रौशनी।
कुछ प्रासाद की प्रथा अलबेली थी।
प्रसाद खाने को सोने की थाली थी।
वही बस्ती में कुछ हफ़्तों के भूखे थे,
खंडहर पर्याय बनी जिनकी हवेली थी।
देख हालात उनके मैं अश्रु घूँट पीता।
या की उनके घावों पर मरहम थोपता।
सामने पड़ने में मुझे बड़ा डर लगा था।
लो अब लौटने का जी भी न करता था।
क्या मैं जा के दो टूक बात कर लेता।
या घुटन भरी शाम में रह कर देखता।
बात में भी उनसे क्या बात कर लेता,
बिना विष्णु प्रिया के सब था फीका।
प्रणव मिश्र'तेजस'
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