सुन सति का दाह घृणित
क्रोध से काँप उठे शंकर
जाने अब क्या होने वाला
रे बस जाने वही महेश्वर
या तो संसार क्रोधाग्नि में
सहसा भस्म हो जायेगा
या खुलेगा अब रे त्रिनेत्र
कण-कण राख हो जायेगा
जिस पर्वत को देखते रूद्र
वह रसातल में समां जाता
अब धधक उठी ज्यों लपटे
त्राहि त्राहि मनुज पुकारता
चिंगाड़ बोले महेश्वर रे प्रिये
पापी अब न जीवित रहेगा
यदि वो जीवित रहा रे प्रिये
तो सृष्टि का विनाश होगा
इक जटा तभी पटकी पर्वत
वीर वीरभद्र अवतरित हुआ
संग काल रात्रि भद्र काली
का भी तभी अवतरण हुआ।
दोनों योद्धा हाँथ जोड़ बोले
क्या उस समुद्र को सुखाऊँ
या सृष्टि का पल भर में ही,
विनाश कर के लौट आऊँ
शिव बोले रे वीरभद्र जाकर
अपने फरसे की प्यास बुझा
अहंकारी पापी मूर्ख दक्ष को
नर्क का रे मार्ग जल्दी सुझा
अति वेग से दौड़ा है काल
कोटिक सूर्य का तेज लेकर
मानो राहु को खा जायेगा
अब वो सूर्य कच्चा चबाकर
जहाँ जहाँ उसका पैर पड़ता
स्थान पाताल में समां जाता।
उसकी हुँकार से ही ब्रह्माण्ड
थरथरा कर सौ बार काँपता।
शत्रु सेना पर रे आघात इतने
घातक उसके ज्यों पड़ने लगे
नर मुंड काटकर आकाश से
ओला वृष्टि सम गिरने लगे
विष्णु आये दक्ष की मदद को
कुछ पल लड़कर अंतर हुए
लो महाकाल क्षण भर में अब
पापी दक्ष के सम्मुख खड़े हुए
एक प्रहार सर-धड़ अलग कर
शीश हवन कुंड समाहित किया
शिव रौद्र स्वरुप वीर वीरभद्र ने
शिव द्रोही का पल में अंत किया।।
---प्रणव मिश्र'तेजस'
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