भटक अखिल ब्रह्माण्ड में
स्वप्न सूझे मुझको निः सार
माता पिता पुत्र औ भार्या
जोड़ा झूठा बान्धव परिवार
फिर भी ढूढ़ता हूँ मैं ही सखे
उसी निज रची माया का पार
मुक्ति नही है इन शास्त्रो में
न ही मिली कभी देव-गृह-द्वार
वर्थ लगाकर यत्न मुने तुम
पकड़े हो निज माया पाश
वही खींचता है तुम्हे संन्यासी
मत हो रे पगले तू निराश
मैं ही वही चिर अमर आत्मा
जो है एक अभिन्न अनन्य
मुझ स्वगत्य आत्मा का
नही कोई अस्तित्व अन्य
एक मात्र ज्ञाता है आत्मा
जो कालखण्डों से निर्मुक्त
है नामहीन वह है रूपहीन
वह है रे चिन्ह अयुक्त।
उसके बल पर ही माया जो,
रचती है स्वप्नों के भवपाश
उसके बल ही फैला है इस
प्रकृति-पुरुष में प्रकाश।
देह लुटे मत सोंचो संन्यासी
त्यज दो तुम तन चिंता-भार
उसका कार्य समाप्त कर
जा तैर चला जा उस धार
मुने हार तुम्हे न डराये जब
न हो प्रसन्न जब राज्याभिषेक
स्तावक,स्तुत्य औ निंदक जब
लगने लगे सब तुमको एक
तब मानो मिटा मोह संन्यासी
जब अलग हो मन-जल-मीन
बंधनमुक्त करो फिर आत्मा
हो संन्यासी 'तत्वमसि'लीन।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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