क्यों रे ये थकी थकी शाम है?
होंठो पर मेरे हार का जाम है।
परिंदों के पर बस टूटने वाले
अब उनकी उड़ान भी आम है
पैरों में सिमटने वाला विश्व जो
आज करता खुद अभिमान है।
रे पथिक बिना चले ही मर गया
देखो देखो वो कितना नादान है
इस पर नादानी की हद तो देखो
मूर्खता का वो एक प्रतिमान है
कहता अगले जन्म फिर आऊँगा
बढ़ूँगा जब तक जान में जान है
खुल कर रो भी नही पाता हूँ मैं
कइयों ने सौहार्द का दान दिया
रे हार के इस पुतले को उन्होंने
जीवन में बड़ा सम्मान दिया
होंठो पर मुस्कान बहुत "तेजस"
आँखों में आसू का समन्दर था
घुट घुट कर अंदर अंदर रोया
बाहर बना हुआ इक बन्दर था
अपमानों की गोदी पलना होगा
अब दिवाकर को कहाँ आराम है
वाज़िब अब दो नींद सोना चाहूँगा
क्यों रे ये थकी थकी शाम है?
---प्रणव मिश्र'तेजस'
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