तुम आई थी अलसियत भरी
मादकता जीवन में लाने को
फिर उच्छ्वास लेकर सौरभ का
मेरे तन-मन पर छाने को
व्याकुल नयनों के जीवन को
तुम दर्श शांति दे जाती थी
जाने किस सम्मोहन से प्रिये!
साधु मन को बहलाती थी
निज उत्सुक यौवन सौंदर्य से
मुझको बड़ा रिझाती थी
कुछ कहने पर तुम यूँ बेबाती
आँखे बड़ा दिखाती थी
देख तेरी आँखों का काजल
मुदित मन पुष्प पर फँसता
अधखिली कलि के चक्कर में
भौरा हरेक बार गति भूलता
देकर मिलन का न्यौता मुझको
तुम समय से पूर्व पहुँचती थी
फिर दिन वही पर मेरा कट जाता
तुम न आती थी न आती थी
व्याकुल मन पर दुःख का भार;
अब जो कहना है कह दो प्रिये
नदी पार जाऊँ या मझधार मिले
रे हाँ या न में उत्तर दे दो प्रिये
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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