वही रावण-विभीषण-राम सबके मन में बसते हैं।
हुये है यंत्र से मानव बिना संवेग दिखते हैं।
जिन्हें अपने ही बच्चे-घर सभी कुछ बोझ लगते हैं
उम्मीदे क्या मैं रक्खूँ अब कहीं इंसान रहते हैं ।
हुकूमत में चली है होंड किसको कौन नोचेगा
सुना है अब नए दर्जी कफ़न में जेब सिलते हैं।
युवा ये देश के कैसे नये बदलाव लाये हैं
नशे में झूमते फिरते कहीं सड़कों पे गिरते हैं
चली है दौड़ती मोटर मिरी नगरों में सड़को पे
उन्ही सड़कों पे हल्कू रो के' नंगे पैर चलते हैं
यहाँ बहरी हुकूमत को कोई कैसे सिखायेगा
मुझे ऊपर से नीचे तक सभी तो चोर लगते हैं।
ज़रा सम्भल के ही मिलना मुखौटेबाज नेता से
सभी आरक्षण पे रूककर सियासी वोट चुनते हैं।
असल में जो गरीबी थी मरी फुटपाथ पे जाकर
किसी भी वासना की शौक़ में ना जिस्म बिकते हैं।
नए इस दौर में हर शख़्स नौकरशाह बनता है
जने कितने ही हिटलर जा समय की धूल उड़ते हैं
ये "तेजस" क्यों करें अभिमान इस झूठी सी दुनिया पे
बने मिट्टी के नर - तन थे उसी मिट्टी में मिलते हैं ।
©प्रणव मिश्र'तेजस'
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