Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

वैश्या

 

लो आज हृदय पीड़ा कहती,
चुपके से अश्रु घूँट हूँ पीती।
है कंटकित ये मार्ग बड़ा,
कटिबद्ध अनुसरण हूँ करती।

 

अरे ! देखो तुमसे नेह मेरा,
यदि तुम कृष्ण,तो हूँ मीरा।
कभी समझते मेरा दुखड़ा,
अंगारों से है जीवन भरा।

 

लाज छुपाई है मैंने तब तक,
अंतड़ियाँ बिलखी न जब तक।
भूख भी अब तो बेमौत मरती,
ईश्वर भी दिखता दूर तलक।

 

तुमने अपना काम निकाला,
हुए तृप्त , वैश्या कह डाला।
तम में हूँ अक्सर जीने वाली,
सूर्य भी अब तो लगता काला।

 

हुई कलंकित शोक नही,
मानव हूँ अतिश्योक्ति नही।
पर हित में यौवन बेंचा,
रात की रानी नाम सही।

 

ये सफ़ेद पोश काले हैं,
मेरा हुस्न खरीदने वाले हैं।
मैं मजबूरी में हूँ बिकती,
ये तो माँ के सौदे वाले हैं।

 

रातों को सड़को पर होती,
तब बेटी तेरी चैन से सोती।
अगर मैं पीछे हट जाऊ,
उसकी इज्जत बची न होती।

 

माता मानो स्नेह करुँगी,
नही चंडिका रूप धरुँगी।
हूँ अच्छी तुमसे आज भी,
कभी न पश्च्याताप करुँगी।

 

 

-----प्रणव मिश्र'तेजस'

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ