शहर भर की रंगत तो नहीं लेकिन,
बचपन के दिनों की सुकून तर यादें,
अभी तक देती है उल्हहना कि
ऐसे भी क्या कोई तोड़ता है रिश्ता,
मेरे कदमो के निशाँ तो नही मगर,
मेरी पहली तुतलाहट,
गूंजती है अब भी उस सेहरा में,
वो झूले बिखरी लटो की तरह,
सुने पेंग में लटके है,
कोई चिड़िया कभी हवा दे जाती है,
दरवाजा कींईईईई की आवाज करता था
अब जंग में थोड़ा कड़क खुलता है,
आवाज दब गई है,
कई दिनों से बोला नही शायद इसलिए,
कुछ चहेते पक्षी थे,
वे अब आते हा मेहमान की तरह,
इक हवा है बावरी जो,
रोज़ ही संन्नाटे को सन करती है,
कई देर तक इसी खयालों में भीगता हूँ,
छत से क्योंकि,
नहीं दिखता घर मेरा,
Pratap Pagal
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