Pratap Pagal
उसके जिस्म का रंग कच्चा है कुछ
हर वक्त हवा के साथ
नजर आता है सबकी साँस में
जिंदगी के कैनवास पर
उतर तो जाते है ये रंग मगर
फ़ैल जाते है गीलेपन में
हो नही पाता सलीके से कुछ
होते है रंग सूखे फिर भी
और मैं कई दिनों से
हूँ एक असमंजस में
कि सुर्ख सर्द रातों में उसका
करवट बदल कर जागते सोना
वो एक शोर जो सबने सुना
जिसकी आवाज न थी कोई दूर तक
सितारों का मेरी छत पे गिरने की आवाज
और चाँद की रौशनी
चुभती है जिस्म कि हर गिरह में
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