लगे हैं आपकी आंखो मे ये निशान से क्या
निकल के आए हो ख्वाबों के दरम्यां से क्या
तमाम शहर में पत्थर उठाए फिरते हो
ताल्लुकात थे फूलों भरे मकां से क्या
ना जाने कहाँ आग लग गयी दिल मे
निकल रहा अभी तक धुंआ जबान से क्या
यू क्यो अपने इरादो के पर कतरते हो
तुम वाकिफ हो शायद मेरी उडान से क्या
ये जिंदगी तो अब हवा के रूख पे चलती है
कोई करीब का रिश्ता है आयशा खान से क्या
दिल को तोड गयी पल मे शायद वो कोई पगली थी
बिछुड गयी मुझसे पल मे शायद वो कोई पगली थी
होठो पे हंसी आंखो मे नमी दिल मे तडपन थी मेरे अब
ये सब कुछ उसका तोहफ़ा है जो भी वो कोई पगली थी
प्रताप राज आर्य
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