प्रतिभा शुक्ला
ट्रेन आकर रुकी। मुझे लखनऊ जाना था। भीड़भाड़ देख आशंका हुई कि जगह मिलेगी या नही। अक्सर होता है कि जिनकी सीट होती है वह जगह नही देते। पतिदेव एक सीट को देखते ही बोले, बैठ जाओ यही पर। मैं खड़ा रहता हू। लेकिन उनके इतना बोलते ही सीट पर बैठा परिवार सजग होकर और पाँव पसार दिया। देखा पतिदेव थोड़े असहज हुए, लेकिन मैंने उनको समझाते हुए कहा, आप नाहक परेशान हो रहे हैं। कोई बात नही। मै तो खड़े-खड़े भी जा सकती हूँ। लेकिन मेरे बैठने से इनको परेशानी हो जाएगी। इशारे से समझाया की धैर्य रखें। मेरा संयम काम आया। तने पाँव सिकुड़ने लगे। औरतों में बहनापा जागा। एक बोली, आ जाइए। मैंने कृतज्ञता के साथ मुस्कुरा दिया।
पति कान से मुह सता बोले, यह चमत्कार कैसे हुआ?
शालीनता से।
वे हंस पड़े। तब तक एक और चमत्कार। सभी थोडा-थोडा और खिसक गए। करीब आठ इंच और जगह निकल आई। यह पति के लिए थी।
लखनऊ पहुंचते पहुंचते पूरी सीट मेरी थी। सीट के लोग मेरे अपने हो चुके थे।
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