प्रतिभा शुक्ला
तब मै एम् ए में थी। यादव जी का परिवार सामने ही था। यादव जी दो बेटों और दो बेटियों के पिता थे। कमाई का जरिया केवल सब्जी की दूकान थी। इतनी अधिक जिम्मेदारी होने के नाते और ताड़ की तरह बढ़ रही बेटियों को अगर किसी तरह समझा भी लेते, तो ज़माने को कैसे समझाते। अभी बड़ी बेटी के ब्याह से उबरे थे और फिर छोटी तो नौ साल की ही है। तो भी उसकी शारीरिक संरचना को मोहल्ले वालों से कहाँ छुपाते। जो भी मिलता, पूछ बैठता, क
ुमारी के लिए कहूं बात चलाय कि नाही। बेचारे तिलमिला कर रह जाते कि खिला-पहना हम रहे हैं और सहा ज़माने से नहीं रहा जा रहा। थक हार कर उन्होंने उसके लिए वर की तलाश शुरू कर दी। लड़का दो भाई था।जगह जमीन देख कर जैसे तैसे कर कुमारी का ब्याह हुआ। आँख बंद कर वह सो रही थी। इन धार्मिक घटनाओं से अनजान। सुबह बरात चली गई और मुझे सहेजा गया कि उर्मिल जाकर उसे जगा लाओ। चौथी छुडाने जाना है। नहीं तो सब मेहमान विदा हो जायेंगे। मै जब उसके पास गयी तो देखा कि वह अबोध बालिका गहनों से लड़ी मांग भरे पीले सिन्दूर में नहाई आँख मीचती उठी। उसके उठने के साथ ही उसके पैर में पडी बेडी अर्थात पैजनी के घुंघुरू बज उठे। वह मचल पड़ी, माँ माँ माँ, कोई आवाज न मिलने पर उसने मेरी और निहारा और पूछा यह क्या है दीदी?
मैंने बताया, कुमारी तेरी शादी हो गई। उसने पूछा शादी क्या होती है? वही जो हम छत पर गोलू के साथ दूल्हा-दुल्हन खेलते हैं? मै हंस पड़ी, अरी बावरी माँ कहती है की ब्याह से तो दुसरे घर से कोई आता है, जो दुल्हन को ले जाता है। और वह रो पड़ी। उसने पैजनिया निकाल फेंकी और चिल्ला पड़ी, वह तो झूठ-मूठ का खेल था। उसमे दूल्हा कहाँ अपने घर ले जाता है। फिर माँ को आवाज लगाती हुई सीढियों की और दौड़ पड़ी। इससे पहले कि मै उसे समझती, वह आँगन में पहुच चुकी थी, जहां महिलाओं की भारी भीड़ थी। उसे देखते ही भीड़ में से एक उम्रदराज महिला बोली, अरे कुमारी की माँ अब सहेजो अपनी लाडली को। नाही त कुछ उंच-नीच हो जाएगा। हम त तोहरे भले के लिए कह रही हूँ। कुमारी की माँ बोली, काकी अभी तो यह बच्ची है। बच्ची-वच्ची कुछ नाही, अब पढ़ाई बंद कराई के चुल्हा चौका सिखाओ। नाही त एक दिन नाक कटी जाए।
कुछ वर्षों बाद कुमारी की देह ने वह अंगड़ाई अंगड़ाई ली कि अंग गेहूं की बाली की तरह जवान होने लगी। लेकिन न तो उसकी लम्बाई बढ़ी और न पढ़ाई बढ़ी और न उसका बचपन बचा। धीरे-धीरे वह अपनी सहेलियों दूर होने लगी। तब मै ही उसकी एक सहेली थी, जिसके पास आने से उसके माता-पिता कभी नहीं रोकते थे। बल्कि बड़े विश्वास से कहते थे कि बिटिया इसे सऊर सिखा दो, ताकि ससुराल में इसे कुछ सुनना न पड़े। लेकिन जब भी वह मेरे घर आती
, मै दरवाजा बंद कर उसे खेलने देती, ताकि उसका बचपन ज़िंदा रह सके। समंदर की रफ़्तार को कौन रोक सकता है। तीन साल गुजर गए और एक दिन अचानक उसके ससुराल से लोग धमक पड़े। शुभ लग्न देख कर आये थे।वह डरी-सहमी हाथों में कुछ कपडे लिए प्रकट हुई। उसके साथ आई भाभी बोलीं, इनके ससुर आये हैं। तनी इनका ठीक से पहिराइ क सजाई द।
उसकी डबडबाई आँखे हिरनी की तरह कातर हो उठीं।
हर साज पूरा हुआ तो कुमारी अबोध गुडिया की तरह मूरत बन गयी। गाडी में बैठी तो कोई देख न पाया। घर की महिलाओं समेत मोहल्ले के लोगों की आँखें छलक आयीं।
पति ने ठिगना कद देखा तो भड़क गया। लेकिन पिता के आगे एक न चली।
कुमारी ससुराल में टिक गयी। मायका संतुष्ट हो गया।
तब से कितने दिन बीत गए। न कुमारी की कोई खबर आई और न कुमारी। कभी-कभी वह यादों में शंकाओं के साथ वह ताजा हो उठती।
होली के दिन थे। घर में धमाचौकड़ी मची थी। पीछे से किसी की महीन आवाज कानों से टकराई, दीदी।
पलट कर देखा तो कुमारी। न चहरे पर कोई रौनक थी न ही बचपन की अल्हड़ता। एक मौन शोक आँखों से झाँक रहा था। उसकी निराशा से खुशियों भरा घर थरथरा उठा।
मैंने परेशान होकर पूछा, क्या हुआ? ठीक तो हो?
हाँ, ठीक ही तो हूँ। ये कागज़ रख लो। खाली होकर पढ़ लेना। इसके बाद वह कुछ बोल न पायी। गला भर्रा गया। आंसू पोछते हुए पलट कर आँखों से ओझल हो गयी।
कुमारी का कागज़ रहस्य की पोटली। क्या है उसमे! अनपढ़ कुमारी का कागज़ से क्या रिश्ता! एक अनहोनी मन के बिरिछ पर रेघनी चिरैया की तरह अशुभ रटने लगी। बच बचा के छत पर जा बैठी।
"आप चाहे जो भी हों। मेरा अटल फैसला सुन लें। मेरे साथ धोखा किया गया। इस अनपढ़ ठिगनी को मेरे खूंटे बाँध दिया गया। इस जन्म में तो इसे नहीं ही ले आऊंगा। और एक बार आपसे मिलना भी चाहता हूँ।"
पत्र के हर शब्द हथौड़े की तरह सर पर देर तक बजते रहे। दौड़ी गयी कुमारी के घर। बांहों में भींच जकड ली। नन्हे शिशु की तरह उसकी सुबकियाँ और आँखों की कोर से आंसुओं के बूंदे दिल को भिंगोते रहे।
दीदी, कितना कुछ है बताने को। अम्मा-बाबू ने तो पिंड छुडा लिया। पर मेरे हिस्से में तो रह गयी मौत और यातना। अब तो उस घर में मरने की भी ठांव नहीं।
पर कुमारी हुआ क्या? तू बता तो सही।
पहली रात आया तो घूंघट न उठाया। न आँखों में झाँका। मै सिकुड़ते हुए उठने की कोशिश कर ही रही थी की एक जोरदार लात पेट पर पड़ गयी। दर्द और कारण समझती उसके पहले ही उसने गीध और कुत्तों की तरह नोचना शुरू कर दिया। मुह में कपड़ा ठूस दिया। ......................
बदले की भावना इतनी बहसी हो सकती है, कभी सोचा न था। कुमारी का अतीत और भयावह भविष्य औरत के जीवन की एक और तस्वीर लिए खड़ी थी। कहीं मेरे साथ भी ऐसा हुआ तो! पैर थरथरा उठे। कुमारी को और तेजी के साथ भींच लिया। पता नहीं यह उसे संभालने के लिए था या खुद को। पर इस रण में तो लड़ना ही था। मैंने ताकत भरी, यह तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी अग्नि परीक्षा है कुमारी। जो बीता है उसे भूलने को न कहूँगी। पर सबक तो लेना ही होगा। जीत तो हासिल करनी ही होगी, वरना एक शैतान आदमी कैसे बन पायेगा।
जेठ की दोपहरी जाड़े की रात से कम नहीं होती। कुमारी बदहवास सी दाखिल हुई। बाल बिखराए टूटी चूड़ियों से लहूलुहान कलाई का घेरा कमर में डाल फफक पड़ी।
क्या हुआ रे? तेरी ऐसी गति किसने कर डाली?
दीदी। वो आये हैं। भाभी ने भेज दिया पानी देने को। देखते ही आपा खो बैठे। लात-घुसे बरसाने लगे। चीखती तो बदनामी होती।
फिर?
चेहरा घृणा से विकृत हो उठा, कमीने ने मारते-मारते खटिया पर पटक दिया और फिर गीध की तरह नोचने लगा।
उसने खखार कर फच्च से जमीन पर थूक दिया।
हे राम! यह कौन सा प्रेम है! या फिर कौन सी नफ़रत! समझ में न आ रहा था। पूछा, हैं कि चले गए ?
है तो। उसने घृणा से मुह फेर लिया।
मैंने पडोसी नीता को भेजकर उसे बुलवाया। देखा तो हैरत में पड़ गयी। मेरे ही कालेज में पढने वाला सौम्य सा यह लड़का इतना दरिंदा हो सकता है! कुमारी को मेरे साथ देख सकपका गया। हड़बड़ी में दोनों हाथ जुड़ गए, न .......नमस्ते।
मेरे मुह से कुछ न निकला। हाँ, चेहरा कठोर हो आया। कुमारी को नीता के हवाले कर बोली, इसे गरम दूध और हल्दी दे दो। मै अभी आती हूँ।
नीता कुछ समझे, इसके पहले ही बोल पड़ी, लडखडा कर बेचारी गिर पड़ी। और नीचे वाले मेहमानखाने में चली गई।
शोभन को जैसे काठ मार गया था। वह अनुचर की तरह चुपचाप पीछ-पीछे चला आया।
इशारे पर कुर्सी में सिर झुकाए धंस गया। मै खामोश हो उसे घूरती रही। भीतर से तो ऐसी उबकाई चल रही थी कि मुह पर थूक दूं, पर यह समस्या का समाधान न था। बात तो करनी ही पड़ेगी।
तुम क्या सोच रहे हो कि यह सब करके बच निकलोगे? अब तक जो किये हो सब पता है हमें। कुमारी मुह खोल देगी जिस दिन, जेल की चक्की पिसते रह जाओगे। सारी उम्र बीत जायेगी वही पर।
उसने सिर उठाया, पर नजर न मिला सका। मेरी आँखों में लावे फूट रहे थे। पर जब्त करना जरूरी था।
हम तुम्हारी तरह नर पिशाच नहीं हो सकते। रिश्ता तुम्हारे और उसके अम्मा-बाबू ने किया था। कुमारी का क्या दोष? वह बेचारी तो अभी ठीक से यह भी न जान पायी थी कि ब्याह कहते किसे हैं। मर्द हो तो जाकर कुमारी की तरह अपने अम्मा-बाबू को लहूलुहान कर डालो।
वह खामोश था। जैसे किसी को रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो। मेरा खून खौल रहा था, अभी हम चाह लें तो तुम्हारा मुह दिखाना दूर, जिंदगी बर्बाद हो जायेगी। ...........लेकिन हम तुम्हारी तरह पशु नहीं हो सकते।
उसे जैसे तिनके का सहारा मिला, मै क्या करूं? मेरी तो सबने मिलकर जिंदगी ही बर्बाद कर दी।
और तुम क्या कर रहे हो। कुमारी की जिंदगी संवार रहे हो?
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तुम चाहते तो उस अनगढ़ पत्थर को मूरत बना सकते थे। पढ़े-लिखे आदमी होकर दरिंदगी पर उतर आये। बता सकते हो कि कुमारी का अपराध क्या है? यही कि वह गाय की तरह चुपचाप अपने बाप के खूंटे से उठ कर तुम्हारे खूंटे बंध गयी! पर मत भूलो कि जिस दिन गाय भी अपने पर आ गयी, उस दिन उसके सींघ का एक वार भी तुम या तुम्हारा पूरा परिवार नहीं झेल पायेगा।
शोभन इस बार चौंका। उसके हाथ गिडगिडाने की मुद्रा में जुड़ गए, दीदी, मुझे माफ़ कर दो।
इसमें माफ़ी की कोई बात नहीं शोभन। दुनिया तो कुरूप होती ही है। सुन्दर बनाने की जिम्मेदारी तो आदमी की होती है। सोचो, कल को तुम्हारा ब्याह किसी खूबसूरत और लम्बे कद वाली लड़की से हो जाए और किसी कारण से बाद में उसके दोनों पैर कट जाएँ, तो तब भी तुम उसके साथ ऐसा ही बर्ताव करोगे? फिर भगवान न करे कि कल तुम्हारे ही पैर कट जाएँ, चेहरा झुलस जाए तो क्या करोगे?
मुझे नहीं मालूम कि मेरी बात का उस पर क्या असर हुआ। लेकिन मैंने फिर उसकी ओर न ताका। छोड़ कर ऊपर चली गयी।
इस घटना के चार साल बाद, आज अचानक कुमारी को देखा तो देखती ही रह गयी। गहनों से लदी कुमारी मेरे सासरे में अचानक प्रकट हो गयी। देखते ही जोर से चीखी, दीदी .................और दौड़ कर गले लिपट गयी।
अरे, कुमारी तू अचानक कैसे?
कुछ न पूछो। कुछ न पूछो। सब तेरा आशीर्वाद। असल में तो तुझे ही मेरी माँ होना चाहिए था, जिसने मेरा ससुराल और मायका दोनों ही बचा दिया। उसकी आँखें छलछला आयीं, जानती हो दीदी,तुम्हारे यहाँ से जब ये गए तो किसी से कुछ न बोले तुम तो ब्याह के बाद यहाँ चली आई। लेकिन उसके दस दिन बाद ही ये लेने आ गए। कैसे गयी होउंगी, तुम समझ सकती हो। पर उस रात जब ये कमरे में आये तो ....................., वह लजा गयी। बस दीदी। उस दिन के बाद तो ये मेरे बगैर एक भी दिन नहीं रह पाते।
मै कुमारी को देखती ही रह गयी और लाख कोशिशों के बाद भी आँखों से आंसू ढुलक ही पड़े।
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