उनकी यादो को सीने से लगाये
लम्हा -लम्हा समेटते
दिन दोपहर शाम गुजर जाती
यादे है कि मचल पडती
नीद मे भी पुराने खडहर की स्मृतियों मे
जाने को जहा कभी दो स्नेहातुर आखो ने
घर बसाने का सपना देखा था
जानना चाहती है कि
मिलने से बिछड़ने तक की प्रकिया में
ऎसा क्या था जो आज भी जोड़े रखा है
दोनों को
मन आज भी भाग जाता
अकेले पाकर या कभी सभी के बीच से
तलाश करती अपने पुराने दिन
पीले पत्तो के बीच
अटखेलिया करती दो आखे
रिमझिम बूंदों के बीच
बजती पैजनी
और ख़ामोशी में अचानक
खिलखिला कर दौड़ पड़ती वह
और फिर किसी आशंका से काँप जाती
लिपट पड़ती सुरक्षा के लिए
उन बांहों में जो बचा सकता है उसे
आने वाले उन भयानक हवाओं से
जिसने शाख से पत्तों को
अलग करने में कोई मुश्किल नहीं होती।
प्रतिभा शुक्ला
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